Episodit

  • भारत के दक्षिण में स्थित महिलारोप्य नामक नगर के बाहर भगवान् शंकर का एक मठ था, जहाँ ताम्रचूड़ नामक सन्यासी नगर से भिक्षा माँगकर अपना जीवनयापन किया करता था। वह आधी भिक्षा से अपना पेट भरता था और आधी को एक पोटली में बाँधकर खूँटी पर लटका दिया करता था। उस आधी भिक्षा को वह उस मठ की सफ़ाई करने वाले कर्मचारियों को उनके वेतन के रूप में बाँट देता था। इस प्रकार उस मठ का रखरखाव भली प्रकार हो जाता था।

     

    एक दिन हिरण्यक नामक चूहे से मठ के आसपास रहने वाले चूहों ने कहा , “हम अपनी भूख मिटाने के लिए इधर-उधर भटकते रहते हैं जबकि खूँटी पर टँगी पोटली में स्वादिष्ट भोजन बँधा रहता है। हम कोशिश करके भी उस खूँटी तक नहीं पहुँच पाते हैं। आप हमारी कुछ सहायता क्यों नहीं करते?”

    अपने साथियों की बात सुनकर हिरण्यक उनके साथ मठ में पहुँच गया। उसने एक ऊँची छलाँग लगाई। पोटली में रखे भोजन को स्वयं भी खाया और अपने साथियों को भी खिलाया। अब यह सिलसिला हर रोज़ चलने लगा। इससे सफ़ाई कर्मचारियों ने वेतन ना पाकर मठ में काम करना बन्द कर दिया और सन्यासी परेशान हो उठा। सन्यासी ने हिरण्यक को रोकने का पूरा प्रयास किया, किन्तु उसके सोते ही हिरण्यक अपने काम में लग जाता था। अचानक ताम्रचूड़ एक फटा हुआ बाँस ले आया और हिरण्यक को भिक्षापात्र से दूर रखने के लिए सोते समय उस बाँस को धरती पर पटकने लगा। बाँस के प्रहार के डर से हिरण्यक अन्न खाए बिना ही भाग उठता था। इस प्रकार उस सन्यासी और हिरण्यक की पूरी-पूरी रात एक-दूसरे को छकाने में ही बीतने लगी।

  • अर्थात् जिसके भाग्य में जितना लिखा होता है उसे उतना ही मिलता है, देखो कैसे अकेले बैल के मारे जाने की आशा में सियार को पन्द्रह वर्षों तक भटकना पड़ा।

     

    किसी जंगल में तीक्ष्णशृंग नामक एक बैल रहता था वह अपनी शक्ति के नशे में चूर होकर अपने झुण्ड से अलग हो गया था और अकेला ही घूमता रहता था। हरी-हरी घास खाता, ठण्डा जल पीता और अपने तीख़े सींगों से खेलता रहता था। उसी जंगल में अपनी पत्नी के साथ एक लोभी सियार भी रहता था। नदी के तट पर जल पीने आए उस बैल को देखकर उसकी पत्नी कहने लगी, “यह अकेला बैल कब तक जीवित रह पाएगा? जाओ, तुम इस बैल का पीछा करो। अब जाकर हमें कोई अच्छा गोश्त खाने को मिलेगा।”

    सियार बोला, “अरे मुझे यहीं बैठा रहने दो। जल पीने के लिए आने वाले चूहों को खाकर ही हम दोनों अपनी भूख मिटा लेंगे। जो हमें मिल नहीं सकता उसके पीछे भागना मूर्खता होती है।”

    सियारिन बोली, “तुम मुझे भाग्य से मिले थोड़े-बहुत पर ही सन्तुष्ट होने वाले आलसी लगते हो। अगर तुम अपना आलस छोड़ कर और पूरे ध्यान से इस बैल का पीछा करोगे तो हमें अवश्य ही सफलता हासिल होगी। तुम भले ही मत जाओ, मैं तो जा रही हूँ।” 

     

  • Puuttuva jakso?

    Paina tästä ja päivitä feedi.

  • एक नगर में रहने वाला सोमिलक नामक जुलाहा एक उच्चकोटि का कलाकार था। वह राजाओं के लिए अच्छे वस्त्र बुनता था, लेकिन फिर भी वह साधारण जुलाहों जितना भी धन नहीं कमा पाता था। अपनी आर्थिक स्थिति से परेशान होकर एक दिन सोमिलक अपनी पत्नी से बोला, “प्रिये! भगवान की यह कैसी लीला है कि साधारण जुलाहे भी मुझसे अधिक कमा लेते हैं। मैं सोचता हूँ कि शायद यह स्थान मेरे लिए सही नहीं है इसलिए मैं किसी अन्य स्थान पर जाकर अपना भाग्य आजमाना चाहता हूँ।” 

    अर्थस्योपार्जनं कृत्वा नैव भोगं समश्नुते। 

    अरण्यं महदासाद्य मूढः सोमिलको यथा॥

     

    अर्थात् धन का उपार्जन करने पर भी कई लोग उसका भोग नहीं कर पाते हैं,  देखें किस प्रकार मूर्ख सोमलिक धनोपार्जन करके भी ग़रीब ही रहा।

    सोमिलक की पत्नी बोली, “आपका ऐसा सोचना उचित नहीं है। भले ही मेरुपर्वत पर चले जाओ, चाहे मरुस्थल में रहने लगो. आप चाहे कहीं भी चले जाओ अगर आप अपने जोड़े हुए धन का इस्तेमाल नहीं करोगे, तो कमाया हुआ धन भी चला जाएगा। इसलिए मैं कहती हूँ कि आप अपना काम-धन्धा यहीं रहकर करते रहो।”

     

    जुलाहा बोला, “प्रिये! मैं तुम्हारे इस विचार से सहमत नहीं हूँ। परिश्रम करने से कोई भी व्यक्ति अपने भाग्य को बदल सकता है। इसलिए मैं दूसरे देश अवश्य जाऊँगा।”

     

    यह सोचकर सोमिलक दूसरे नगर में जाकर कुशलतापूर्वक श्रम करने लगा और कुछ ही समय में उसने तीन सौ स्वर्णमुद्राएँ कमा ली। फिर वह उन स्वर्णमुद्राओं को लेकर अपने घर की ओर चल दिया। रास्ते में सूर्यास्त हो गया, तो जंगली पशुओं से बचने के लिए वह एक पेड़ की शाखा पर चढ़कर सो गया। आधी रात में उसने भाग्य और पुरुषार्थ नामक दो व्यक्तियों को कहते सुना। 

    भाग्य ने पुरुषार्थ से कहा, “जब तुम्हें पता है कि इस जुलाहे के भाग्य में अधिक धन नहीं लिखा, तब तुमने इसे तीन सौ स्वर्णमुद्राएँ क्यों दीं?”

    पुरुषार्थ ने उत्तर दिया, “मुझे तो उसके परिश्रम का फल उसे देना ही था, अब आगे की तुम जानो।”

     

    यह सुनते ही जुलाहे की नींद खुल गई और उसने अपनी थैली सम्भाली, तो वह ख़ाली थी। यह देखकर वह रोने लगा। ख़ाली हाथ घर जाना उचित ना समझकर, वह पुनः अपने काम पर वापस लौट आया और फिर से परिश्रम करने लगा।

     

    एक वर्ष में पाँच सौ स्वर्णमुद्राएँ जुटाकर वह पुनः एक दिन अपने घर को चल दिया। इस बार सूर्यास्त हो जाने पर भी उसने रुकना अथवा सोना उचित नहीं समझा और चलता ही रहा। 

     

    लेकिन इस बार उसने अँधेरे रास्ते में दो व्यक्तियों को एक-दूसरे से यह कहते हुए सुना, “तुमने फिर उसे इतना धन दे दिया, जबकि तुम जानते हो कि उसके भाग्य में खाने-पीने भर से अधिक नहीं है।” 

    दूसरे ने उत्तर दिया, “मुझे तो उसे उसके परिश्रम का फल देना ही था। अब आगे की तुम जानो।”

     

     इस बातचीत को सुनते ही जुलाहे ने अपनी थैली देखी तो उसको ख़ाली पाया। वह अपना सिर पीटकर रोने लगा। 

     

  • एक बार एक शिकारी घने जंगल में शिकार करने गया। तभी उसकी नज़र एक काले रंग के मोटे जंगली सूअर पर पड़ी। शिकारी ने अपने बाण से उस सूअर पर हमला कर दिया। घायल सूअर ने भी पलटकर अपने सींग उस शिकारी की छाती में घुसेड़ दिए। इस प्रकार बाण लगने से जंगली सूअर की मौत हो गई और सूअर के सींग से शिकारी भी मर गया।

    इसी बीच भूख से हैरान-परेशान एक गीदड़ वहाँ आ पहुँचा और दोनों को मरा देखकर अपने भाग्य को सराहता हुआ कहने लगा, “लगता है कि आज भगवान् मुझ पर प्रसन्न है। तभी तो बिना चाहे और बिना भटके इतना सारा भोजन मिल गया।” गीदड़ ने सोचा कि मुझे इस भोजन का प्रयोग इस प्रकार करना चाहिए, जिससे मेरी गाड़ी बहुत दिनों तक चल सके और मुझे अधिक दिनों तक भोजन की तलाश में भटकना ना पड़े। इसलिए आज केवल शिकारीके धनुष में लगी डोरी को खाकर ही अपना गुजारा कर लेना चाहिए।

    यह सोचकर गीदड़ धनुष की डोर को अपने मुख में डालकर चबाने लगा। लेकिन डोरी के टूटते ही धनुष का ऊपरी हिस्सा इतनी तेजी से गीदड़ की छाती में आ लगा कि वह चीख़ मारकर गिर पड़ा और उसके प्राण निकल गये।

     

  • नाकस्माच्छाण्डिली मातर्विक्रीणाति तिलैस्तिलान्।

    लुञ्चितानितरैर्येन हेतुरत्र भविष्यति॥

     

    अर्थात् यदि शाण्डली अपने धुले हुए तिल देकर बदले में काले तिल लेना चाहती है, तो उसके पीछे अवश्य ही कोई कारण होना चाहिए।

     

    एक नगर में एक ब्राह्मण रहता था। एक दिन प्रातःकाल ब्राह्मण ने अपनी पत्नी से कहा आज दक्षिणायन संक्रान्ति है, आज दान करने का बहुत अच्छा फल मिलता है मैं इसी आशा से जा रहा हूँ। तुम किसी एक ब्राह्मण को भोजन करा देना। पति की यह बात सुनकर ब्राह्मणी बोली, “क्या तुम्हें यह सब कहते शर्म नहीं आती? इस ग़रीब घर में रखा ही क्या है, जो किसी को भोजन कराया जाए? ना ही हमारे पास पहनने को कोई अच्छे कपड़े हैं, ना कोई सोना- चाँदी। हम भला क्या ही किसी को कुछ दान देंगे!” 



    पत्नी के कठोर वचन सुनकर ब्राह्मण ने कहा, “तुम्हारा यह सब कहना उचित नहीं है। धन तो आज तक किसी को भी नहीं मिला। हमारे पास जितना है उसमें से थोड़ाकुछ किसी जरूरतमन्दको देना ही सच्चा दान है।” 

     

    पति के इस प्रकार समझाने-बुझाने पर ब्राह्मणी बोली, “ठीक है। घर में थोड़े-से तिल रखे हैं, मैं उनके छिलके उतार लेती हूँ उनसे ही किसी ब्राह्मण को भोजन करा दूँगी।”

     

    पत्नी से आश्वासन मिलते ही ब्राह्मण दूसरे गाँव दान लेने चला गया। इधर ब्राह्मणी ने तिलों को कूटा, धोया और सूखने के लिए उन्हें धूप में रख दिया। तभी एक कुत्ते ने धूप में सूख रहे तिलों पर पेशाब कर दिया। ब्राह्मणी सोचने लगी, यह तो कंगाली में आटा गीला वाली बात हो गई। अब किसी को अपने धुले तिल देकर उससे बिना धुले तिल लाने की कोशिश करती हूँ।

  • सर्वेषामेव मत्त्याँनां व्यसने समुपस्थिते। 

    वाङ्मात्रेणापि साहाय्यं मित्रादन्यो ना सन्दधे॥

     

    अर्थात् संकट के समय मौखिक आश्वासन भी केवल मित्र से ही मिल सकता है, जैसे सिर्फ़ चित्रग्रीव के कहने मात्र से हिरण्यक ने अपने मित्र की मदद कर दी थी। 

     

    एक वन में एक बरगद के पेड़ के सहारे कई पक्षी और जानवर रहते थे। उसी बरगद पर लघुपतनक नाम का एक कौआ भी रहता था। एक दिन वो जैसे ही भोजन की खोज में निकला तो उसने हाथ में जाल लिये एक शिकारी को उस बरगद की ओर आते देखा। वह सोचने लगा कि यह दुष्ट तो मेरे साथी पक्षियों को अपना शिकार बनाने यहाँ आया है। मैं सभी को सावधान कर देता हूँ। 

     

    यह सोचकर वह वापस लौट आया और अपने सभी साथियों को इकट्ठा करके उन्हें बताने लगा- “बहेलिया अपना जाल फैलाकर यहाँ पर चावल बिखेरेगा और जो भी उन चावलों का लालच करेगा, वह जाल में अवश्य ही फँस जाएगा। इसलिए कोई भी चावलों के पास नहीं जाएगा।”

     

    कुछ ही देर बाद, बहेलिये ने अपना जाल बिछाकर चावल फैला दिए और वह छिपकर एक ओर बैठ गया। ठीक इसी समय अपने परिवार के सदस्यों के साथ भोजन की खोज में निकले चित्रग्रीव नामक कबूतर ने जब उन चावलों को देखा, तो उसे लालच हो आया। कौए ने चित्रग्रीव को रोकना चाहा, लेकिन चित्रग्रीव ने कौए की एक ना सुनी और चावलों को खाने के चक्कर में पूरे परिवार के साथ जाल में फँस गया।

     

    बहेलिया कबूतरों को अपने जाल में फँसा देखकर प्रसन्न होकर उन्हें पकड़ने के लिए उनकी ओर चला। लेकिन बहेलिए को अपनी ओर आता देखकर कबूतरों के मुखिया ने अपने परिजनों को समझाते हुए कहा -

     

    “तुम सब इस जाल को लेकर थोड़ी दूर तक उड़ चलो, तब तक मैं इस जाल से मुक्त होने का कोई उपाय सोचता हूँ। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे, तो बहेलिए के हाथों में पड़कर अवश्य मारे जाओगे।”

     

    अपने मुखिया की बात मानकर सभी कबूतरों ने एक साथ अपने पंख फड़फड़ाए और जाल को साथ लेकर उड़ने लगे। कबूतरों को जाल के साथ उड़ता देख, बहेलिया उनके पीछे भागा और कहने लगा, “कब तक एक साथ उड़ पाओगे कुछ देर में ही तुम सब आपस में लड़ने लगोगे और नीचे गिर जाओगे।” 

    पर कबूतर एक साथ उड़ते रहे और देखते ही देखते आसमान में ऊँचे उड़ गए। दुःखी हुआ बहेलिया अपने भाग्य को कोसता हुआ लौट गया।

     

  • मूर्ख बंदर और राजा

    किसी राजा का एक भक्त और विश्वासपात्र एक बंदर था। राजा ने उस बंदर को अपना अंगरक्षक नियुक्त कर रखा था और उसे राजमहल में कहीं भी बेरोक-टोक आने-जाने की अनुमति थी।

    एक दिन राजा सो रहा था और बंदर उसके पास खड़ा पंखा लेकर हवा कर रहा था। सोते हुए राजा की छाती पर एक मक्खी बैठ गयी। पंखे से बार-बार दूर हटाने पर भी वह बार-बार वहीं बैठती रही।

    तब उस मूर्ख बंदर ने एक पैनी तलवार से मक्खी पर प्रहार कर दिया। मक्खी तो उड़ गयी परन्तु राजा की छाती के दो टुकड़े हो गए और राजा वहीं मर गया।

    इसीलिए कहते हैं मूर्ख से मित्रता हानिकारक हो सकती है।

     

  • किसी नगर में जीर्णधन नामक एक व्यापारी रहता था। धन खत्म हो जाने पर उसने दूर देश व्यापार के लिए जाने की सोची।

    उसके पास उसके पूर्वजों की एक बड़ी भारी लोहे की तराजू थी। उसे एक सेठ के घर गिरवी रखकर वह परदेश चला गया। बहुत समय बीतने के बाद वह व्यापारी अपने नगर वापस लौटा और सेठ के पास जाकर बोला, “सेठ जी! आपके पास गिरवी रखी हुई मेरी तराजू मुझे वापस कर दीजिये।“ सेठ बोला, “भाई तुम्हारी तराजू तो नहीं है उसे चूहे खा गए।“ जीर्णधन बोला, “अब तराजू चूहे खा गए तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं है।“

    कुछ सोचकर जीर्णधन आगे बोला, “सेठजी! मैं अभी नदी किनारे स्नान करने जा रहा हूँ। मेरे पास इतना समान है इसलिए आप अपने बेटे को मेरे साथ भेज दीजिये।“ सेठजी ने भी सोचा कि ये ज्यादा देर यहाँ रहा तो कहीं उनकी चोरी खुल ना जाए, और अपने लड़के को जीर्णधन के साथ भेज दिया।

    सेठ का बेटा खुशी से जीर्णधन का समान उठाकर उसके साथ चल दिया। जीर्णधन ने स्नान करने के बाद उस बालक को एक गुफा में बंद कर उसका दरवाजा एक बड़े पत्थर से बंद कर दिया। उसके बाद जीर्णधन अकेला ही अपने घर लौट आया। जब सेठ जी को अपना बेटा कहीं दिखाई नहीं दिया तो उन्होंने पूछा, “अरे जीर्णधन! मेरा बेटा कहाँ है? वो तुम्हारे साथ नदी में स्नान करने गया था ना?” जीर्णधन बोला, “हाँ! पर उसे बाज उड़ाकर ले गया।“

    सेठ बोला, “अरे झूठे! इतने बड़े बालक को क्या बाज उड़ाकर ले जा सकता है? मेरे बेटे को मुझे वापस कर दो वरना मैं राजसभा में शिकायत करूँगा।”

    जीर्णधन बोला, “ओ सत्यवादी! जैसे बालक को बाज उड़ा नहीं सकता, वैसे ही लोहे की तराजू को चूहे नहीं खा सकते अगर अपना बेटा वापस चाहते हो तो मेरी तराजू लौटा दो।“

    इस प्रकार दोनों का विवाद बढ़ गया और वो लड़ते हुए राजसभा में पहुँच गए। वहाँ पहुंचकर सेठ ने ऊंचे स्वर में बोला, “मेरे साथ घोर अन्याय हुआ है। इस दुष्ट ने मेरा बेटा चुरा लिया है।“

    धर्माधिकारी ने जीर्णधन से सेठ का बेटा लौटाने को कहा तो वह बोला, “मैं क्या करूँ। मैं नदी में स्नान कर रहा था और मेरे देखते-दखते नदी के किनारे से बाज बालक को उड़ाकर ले गया।“

    उसकी बात सुनकर धर्माधिकारी बोला, “तुम झूठ बोल रहे हो। क्या एक बाज बालक को उड़ाकर ले जाने में समर्थ है?”

    जीर्णधन बोला, “जहाँ लोहे की तराजू को चूहे खा सकते हैं, वहाँ बाज बालक को उड़ा सकता है।“

    यह कहकर उसने राजा को सारी बात बता दी। राजा ने सेठ को जीर्णधन की तराजू वापस करने को कहा और जीर्णधन ने सेठ का बेटा उसको वापस कर दिया।

    इस प्रकार जीर्णधन ने अपनी चतुराई से अपनी तराजू वापस ले ली। 

     

    इसीलिए कहते हैंजिन लोगों की नीयत खराब हो उन पर कभी विश्वास नहीं करना चाहिए।

     

  • मूर्ख बगुला और केकड़ा

    किसी जंगल में एक पेड़ पर बहुत सारे बगुले रहते थे। उसी पेड़ के कोटर में एक काला भयानक सांप रहता था। वह पंख न निकले हुए बगुले के बच्चों को खा जाता था। एक बार सांप को अपने बच्चों को खाता देखकर तथा उनके मरने से दुःखी होकर बगुला नदी की किनारे गया और आँखों में पानी भरकर सर नीचे कर बैठ गया।

    उसको इस प्रकार देखकर एक केकड़ा उसके पास आया और पूछा, “मामा! क्या हुआ? आज तुम रो क्यों रहे हो?” बगुला बोला, “भद्र! क्या करूँ, पेड़ की कोटर में रहने वाले सांप ने मुझ अभागे के बच्चे खा लिए। इसी कारण मैं दुःखी होकर रो रहा हूँ। उस सांप के नाश का कोई उपाय हो तो बताओ।“

    उसकी बात सुनकर केकड़े ने सोचा की यह तो हमारा दुश्मन है, इसको कुछ ऐसा उपाय बताता हूँ की इसके सारे बच्चे नष्ट हो जाएं। ऐसा सोचकर उसने कहा, “मामा! यदि ऐसा है तो तुम मछलियों के टुकड़े नेवले के बिल से सांप की कोटर तक डाल दो। ऐसा करने पर नेवला उस रास्ते जाकर सांप को मार डालेगा।“

    बगुले ने वैसा ही किया। मछलियों के टुकड़े खाते-खाते नेवला सांप की कोटर तक पहुँच गया और सांप को देखकर उसे मार डाला। सांप को मारने के बाद नेवला उस पेड़ पर रहने वाले बगुलों को भी एक-एक कर खा गया।

    इसीलिए कहते हैं कि कोई भी उपाय करने के पहले उसके परिणामों के विषय में भी सोच लेना चाहिए।

     

  • धर्मबुद्धि और पापबुद्धि

    किसी गाँव में धर्मबुद्धि और पापबुद्धि नाम के दो मित्र रहते थे। एक दिन पापबुद्धि ने सोचा कि मैं तो मूर्ख हूँ, इसीलिए गरीब हूँ। क्यों न धर्मबुद्धि के साथ मिलकर विदेशों में जाकर व्यापार करूँ और फिर इसको ठगकर ढेर सारा धन कमा लूँ।

    यह सोचकर एक दिन पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, “हम इस गाँव में अपना समय व्यर्थ कर रहे हैं। क्यों न हम नगर में जाकर कुछ व्यापार करें?“ धर्मबुद्धि ने अपने मित्र की बात मान ली और उसके साथ नगर को चला गया।

    दोनों ने कई दिनों तक नगर में रहकर व्यापार किया और अच्छा धन कमाया। एक दिन दोनों ने अपने गाँव वापस लौटने का मन बनाया। गाँव के समीप पहुँचने पर पापबुद्धि ने धर्मबुद्धि से कहा, “मित्र! इतना सारा धन एक साथ घर ले जाना उचित नहीं है। क्यों न हम थोड़ा सा धन निकालकर बाकी यहीं कहीं धरती में गाड़ दें। आगे जब भी आवश्यकता होगी हम यहाँ आकर निकाल लिया करेंगे।“ उसकी बात धर्मबुद्धि ने मान ली।

    एक रात पापबुद्धि जंगल में गया और गड्ढे से सारा धन निकलकर ले आया।

    दूसरे दिन पापबुद्धि धर्मबुद्धि के घर गया और बोला, “मित्र! मेरा परिवार बहुत बड़ा है। मुझे अपना घर चलाने के लिए अधिक धन की आवश्यकता है, इसलिए हम जंगल जाकर कुछ धन निकाल लाते हैं।“ दोनों साथ में जंगल चले गए।

    जब दोनों ने मिलकर उस स्थान पर खोदा जहाँ धन गड़ा हुआ था तो धन का पात्र खाली पाया। तब पापबुद्धि अपना सर पीटता हुआ बोला, “धर्मबुद्धि! तुमने ही यह धन चुराया है। तुम्हारे अतिरिक्त किसी और को इस स्थान का पता नहीं था। अब जल्दी से मेरा आधा भाग मुझे दे दो अन्यथा मेरे साथ राजसभा चलो, वहीं इसका निर्णय होगा।“

  • मूर्ख बंदर और सूचीमुख पक्षी

    नानाम्यं नमतजे दारु नाश्मनि स्यात्क्षुरक्रिया ।

    सूचीमुखं विजानीहि नाशिष्यायोपदिश्यते ॥

    “नहीं झुकने योग्य लकड़ी नहीं झुकती, पत्थर से दाढ़ी नहीं बनाई जा सकती और अशिष्य को उपदेश नहीं दिया जा सकता। सूचीमुख इसका उदाहरण है।“

    किसी पहाड़ी क्षेत्र के एक जंगल में बंदरों का एक झुंड रहता था। एक बार ठंड के मौसम में बारिश से भीग जाने के कारण वो ठिठुर रहे थे। किसी तरह ठंड से बचने के लिए उन्होंने आग जैसी दिखने वाली सुखी घास इकट्ठा की और उसमें फूँक मारकर गर्मी उत्पन्न करने का प्रयास करने लगे।

    उनको इस प्रकार घास के ढेर के चारों ओर बैठकर निरर्थक प्रयास करता देखकर सूचीमुख नाम का एक पक्षी उनके पास आकर बोला, “ये कैसी मूर्खता कर रहे हो। ऐसे आग नहीं जलती। यहाँ सर्दी से ठिठुरने की बजाय किसी गुफा को ढूंढकर उसके अंदर बैठकर अपनी जान बचाओ। बदल उमड़ रहे हैं, अभी और भी बारिश होगी।“

    उनमें से एक बूढ़े बंदर ने बोला, “तुम अपने काम से काम रखो। हमें तुम्हारे ज्ञान की आवश्यकता नहीं है।“

    पक्षी ने बूढ़े बंदर की बात अनसुनी कर दी और बार-बार वही बात कहने लगा, “अरे बंदरों! इस प्रकार व्यर्थ का प्रयास मत करो।“

    जब किसी तरह उसका प्रलाप शान्त नहीं हुआ तो अपना प्रयास व्यर्थ होने से क्रोधित एक बंदर ने उसके दोनों पंख पकड़कर उसे एक पत्थर पर पटक कर मार दिया।

    इसीलिए कहते हैं कि अयोग्य को शिक्षा देने का प्रयास नहीं करना चाहिए। 

     

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    चटकाकाष्ठकूटेन मक्षिकादर्दुरैस्तथा ।

    महाजनविरोधेन कुञ्जरः प्रलयं गतः ॥

    कठफोड़वा, गौरैया, मेढक तथा मक्खी जैसे महाजनों का विरोध करने से हाथी नष्ट हो गया था।

    किसी जंगल में चटक और चटकी नामक गौरैया का जोड़ा एक सदाबहार तमाल के पेड़ में घोंसला बनाकर रहते थे। कुछ समय बाद गौरैया ने उस घोंसले में अंडे दिए। एक दिन एक मतवाला हाथी कड़ी धूप से बचने के लिए उस घने पेड़ की छाया में आकर खड़ा हो गया। अपनी शक्ति के मद में चूर उसने पेड़ की जिस डाल में गौरैया का घोंसला था उसे अपनी सूंड से पकड़कर तोड़ दिया।

    डाल टूटने से गौरैया का घोंसला गिर गया और उसमें रखे चटकी के सारे अंडे फूट गए। चटकी अपने अंडों के फूटने के कारण रोने लगी। उसका रोना सुनकर उनका मित्र कठफोड़वा उनके पास आकर बोला, “क्यों बेकार में रो रही हो। गए हुओं को यादकर रोते नहीं हैं। हमें हमारे सामर्थ्य के अनुसार ही जीवन जीना पड़ता है।“

    उसकी बात सुनकर चटक ने कहा, “तुम्हारी बात सच है। परंतु उस मदमस्त हाथी ने अपने बल के अभिमानवश जो किया है उसे उसका दण्ड अवश्य मिलना चाहिए। तुम अगर मेरे सच्चे मित्र हो तो इस हाथी को दण्ड देने के कोई उपाय सोचो, उसके बाद ही हमारी संतान के मरने का दुःख दूर होगा।“

    उसके बाद कठफोड़वा अपनी वीणारवा नामक मक्खी मित्र के पास गया और उसे सारी बात बताई। मक्खी उन सबको लेकर अपने मेघनाद नाम के मेढक मित्र के पास लेकर गयी। सबने आपस में सलाह कर हाथी से छुटकारा पाने की एक युक्ति सोची।

    मेघनाद ने मक्खी से कहा, “मक्खी! कल दोपहर के समय तुम हाथी के कानों में अपनी वीणा की मधुर आवाज करना। उस संगीत की मधुरता के कारण वह अपनी आँखें बंद कर लेगा। जैसे ही वह अपनी आँखें बंद करेगा कठफोड़वा अपनी चोंच से उसकी आँखें फोड़ देगा। इस प्रकार अंधा हो जाने पर जब वो प्यास होकर पानी के पास जाने की सोचेगा तब मैं अपने परिवार के साथ गहरी खाई के पास जाकर जोर-जोर की आवाज करूँगा। अंधा होने के कारण हाथी तालाब समझकर वहाँ आएगा और खाई में गिरकर मर जाएगा।“

    इस प्रकार सभी ने मिलकर एक विशाल हाथी को भी अपनी चतुराई से नष्ट कर दिया।

    इसीलिए कहते हैं कि बुद्धि के प्रयोग से कमजोर लोग मिलकर बलशाली को पराजित कर सकते हैं। 

     

  • किसी तालाब में तीन मछलियाँ अनागतविधाता, प्रत्युत्पन्नमति और यद्भविष्य रहती थीं। एक दिन उस तालाब को देखकर मछुआरों ने कहा, “अहो! इस तालाब में तो बहुत सारी मछलियाँ हैं। हम कल यहाँ जरूर आयेंगे।“ उनकी बातों को सुनकर अनागतविधाता ने सभी मछलियों को बुलाकर कहा, “क्या आपलोगों ने मछुआरों की बात सुनी? हमें उनसे बचने के लिए आज रात में पास के तालाब चले जाना चाहिये।“

    अनागतविधाता की बात सुनकर बाकी मछलियाँ बोलीं, “हम अपना घर छोड़कर किसी नई जगह नहीं जा सकते।“

    प्रत्युत्पन्नमति ने कहा, “किसी नई जगह में नई कठिनाइयाँ हो सकती हैं, हमें यहीं रहकर मछुआरों से बचने का प्रयास करना चाहिए।“

    यद्भविष्य बोली, “जो भाग्य में लिखा है वो तो होकर ही रहेगा। इस तरह कुछ भी प्रयास करना व्यर्थ है।“

    अनागतविधाता अपने परिवार को लेकर रात में ही दूसरे तालाब चली गयी।

    अगले दिन जब मछुआरों ने जाल बिछाया तो प्रत्युत्पन्नमति और यद्भविष्य के साथ अन्य मछलियाँ जाल में फंस गयीं।

    प्रत्युत्पन्नमति ने जाल में फंस जाने पर मरने का नाटक किया। मछुआरों ने मरी हुई मछली देखी तो उसे फिर से पानी में फेंक दिया और यद्भविष्य और अन्य मछलियों को लेकर चले गए।

    इसीलिए कहते हैं कि विपत्ति के लिए पहले से तैयारी करने वाले और विपत्ति आने पर उससे बचने का प्रयास करने वाले सुरक्षित रहे हैं और भाग्य पर सब कुछ छोड़ देने वाले नष्ट हो जाते हैं।

     

  • किसी तालाब में कम्बुग्रीव नामक एक कछुआ रहता था। उसके संकट-विकट नाम के दो हंस परम स्नेही मित्र थे। एक बार वहाँ लंबे समय तक वर्षा नहीं होने के कारण, तालाब धीरे-धीरे सूखने लगा। एक दिन तीनों इसी विषय में आपस में बात कर रहे थे। कछुए ने कहा, “मित्रों! जल के अभाव में हमारा जीवन नहीं बचेगा। हमें अपनी जान बचाने का कुछ उपाय सोचना पड़ेगा।“

    हंसों ने कहा, “यहाँ से थोड़ी दूर पर एक दूसरा बड़ा तालाब है, जिसमें पानी भरा हुआ है। हम सबको वहीं चलना चाहिए।“

    इस पर कछुए ने कहा, “तुम दोनों कहीं से एक लकड़ी लेकर आओ। तुम दोनों उस लकड़ी को अपने पंजों से पकड़कर उड़ना और मैं उसे अपने दांतों से पकड़कर लटक जाऊँगा।“

    हंस बोले, “हम ऐसा ही करते हैं, लेकिन हवा में उड़ते समय तुम किसी भी हालत में अपना मुँह मत खोलना। अगर तुमने अपना मुँह खोला तो तुम नीचे गिरकर मर जाओगे।“

    इस प्रकार दोनों हंस एक लकड़ी में कछुए को लटकाकर उड़ चले। रास्ते में एक गाँव आया। गाँव वाले दोनों हंसों को इस प्रकार उड़ता हुआ देखकर आश्चर्य-चकित होकर कहने लगे, “अहो! देखो ये पक्षी क्या चक्र जैसी वस्तु लेकर उड़े जा रहे हैं।“

    उनकी बात सुनकर कछुए से रहा नहीं गया और वो बोला, “ये चक्र जैसी वस्तु मैं हूँ, कम्बुग्रीव।“

    कछुए के इस प्रकार मुँह खोलते ही वो नीचे गिर गया और इतनी ऊंचाई से गिरने के कारण उसकी मृत्यु हो गई।

    इसीलिए कहते हैं कि हितकारी लोगों की बात माननी चाहिए।

  • किसी समुद्र के तट में एक टिटिहरी पक्षियों का एक जोड़ा रहता था। जब मादा टिटिहरी के अंडे देने का समय आया तो उसने नर टिटिहरी से कहा कि जल्दी से कोई शान्त जगह ढूँढे, जहाँ वह अंडे दे सके। नर टिटिहरी ने कहा, “यह समुद्र तट कितना सुंदर है, तुम यहीं अंडे दे दो।“ मादा बोली, “पूर्णिमा के दिन जो ज्वार आता है वो बड़े-बड़े हाथियों तक तो अपने साथ बहा ले जाता है। तुम जल्दी से कोई दूसरा स्थान खोजो।“ इस पर नर बोला, “बात तो तुम्हारी सत्य है पर इस समुद्र में ऐसा सामर्थ्य कहाँ जो मेरे बच्चों का कुछ बिगाड़ सके। तुम निश्चिंत होकर यहीं अंडे दो।“

    उधर समुद्र ने टिटिहरी की बातें सुनकर सोचा, “कितना कल्पित गर्व है इस पक्षी में कि रात में आकाश को सम्हालने के लिए पैर ऊपर करके सोता है। जरा देखें तो इसकी ताकत।“ ऐसा सोचकर समुद्र स्थिर हो गया और टिटिहरी ने समुद्र के किनारे अंडे दे दिए। अगले ही दिन जब टिटिहरी भोजन की खोज में गए हुए थे, समुद्र में ज्वार आया और वो टिटिहरी के अंडे बहाकर ले गया। जब दोनों पक्षी वापस आए तो अपने अंडे न देखकर मादा टिटिहरी क्रोध में बोली, “अरे मूर्ख! मैंने तुझसे कहा था की समुद्र के ज्वार में मेरे अंडे नष्ट हो जाएंगे इसीलिए कहीं दूर चलकर शान्त जगह में अंडे देते हैं, पर तूने अपनी बेवकूफी और अहंकार के कारण मेरी बात नहीं मानी।“

     

  • किसी जंगल में मदोत्कट नाम का एक सिंह रहता था। उसके सेवक गैंडा, कौवा और गीदड़ थे। एक दिन उन्होंने जंगल में इधर-उधर घूमते हुए अपने साथियों से बिछड़ा हुआ क्रथनक नाम का एक ऊंट देखा। ऊंट को देखकर सिंह बोला, “अहो! यह तो बड़ा ही सुंदर जीव है। पता लगाया जाए की यह पालतू है या जंगली।“ यह सुनकर कौआ बोला, “स्वामी! ऊंट नाम का यह पालतू पशु आपका भोजन है। आप इसे तुरंत मार डालिये।“ सिंह बोला, “नहीं! मैं अपने घर आये हुए को नहीं मरूँगा। तुम लोग उसको अभयदान देकर मेरे पास लेकर आओ जिससे मैं उसके यहाँ आने का कारण पूछ सकूँ।“

    सिंह की बात मानकर उसके साथी किसी तरह ऊंट को विश्वास दिलाकर मदोत्कट के पास ले आए। तब सिंह के पूंछने पर ऊंट ने उसे अपने बारे में सब कुछ बता दिया कि कैसे वह गाँव में अपने मालिक के लिए भार उठाता है और आज किसी तरह अपने साथियों से भटककर यहाँ जंगल में पहुँच गया है। ऊंट की बातें सुनकर सिंह बोला, “क्रथनक भाई! अब तुम्हें गाँव वापस जाकर बोझ उठाने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम अब यहीं हमारे साथ जंगल में रहो और बिना किसी डर के हरी घास का सुख भोगो।“

    उसके बाद मदोत्कट के संरक्षण में वह ऊंट बिल्कुल निडर होकर जंगल में रहने लगा।

     

  • किसी जंगल में चंडरव नामक एक सियार रहता था। वह एक बार भूख से व्याकुल होकर खाने की खोज में किसी नगर में जा पहुंचा। नगर में रहने वाले कुत्ते उसे देखकर भौंकते हुए उसके पीछे दौड़े। उनसे अपनी जान बचाने के लिए सियार भाग कर पास ही एक धोबी के घर में घुस गया। वहाँ नील के पानी से भरा एक नांद तैयार रखा था। कुत्तों से डरा हुआ सियार हड़बड़ी में उस नांद में गिर गया। जब वह उस नांद ने निकला तो नीले रंग को हो जाने के कारण कुत्तों ने उसे नहीं पहचाना और उसके पीछे नहीं भागे। नीले रंग से रंगा हुआ सियार धीरे-धीरे जंगल पहुंचा।

    जंगल के सभी जानवर नीले रंग के सियार को देखकर अचंभित हो गए और डर के कारण इधर-उधर भागने लगे। यहाँ तक कि बड़े-बड़े हाथी और भयानक सिंह भी इस नए जानवर से भयभीत थे। उनको डरा हुआ देखकर चंडरव बोला, “हे जंगल के जीवों! तुम मुझे देखकर भाग क्यों रहे हो? मुझसे डरो मत। ब्रह्मदेव ने आज ही मेरा निर्माण किया है और मुझे जंगल के सभी जीवों का राजा बनाकर यहाँ भेजा है। मेरा नाम ककुद्द्रुम है और स्वयं ब्रह्मदेव की आज्ञा से मैं तुम सब का राजा हूँ।“

    उसकी बात सुनकर सभी जानवरों ने कहा, “स्वामी! आज्ञा दीजिये।“

     

  • किसी जंगल में भासुरक नाम का एक सिंह रहता था। वह बलवान होने के कारण रोज अनेक हिरण, खरगोश आदि जानवरों को मारकर भी शान्त नहीं होता था। एक दिन उस जंगल के सारे जीव मिलकर उसके पास गए और बोले, “स्वामी! इन सारे जीवों को मारने से क्या लाभ? आपकी तृप्ति तो एक हिरण से ही हो जाती है। इसलिए आप हमारे साथ संधि कर लीजिये। आज से घर बैठे आपके पास क्रम से रोज एक जीव खाने के लिए पहुँच जाया करेगा। ऐसा करने से आपकी जीविका भी बिना कष्ट के चलेगी और हमारा नाश भी नहीं होगा।“

    उनकी बात सुनकर भासुरक बोला, “ये तुमने ठीक कहा। परंतु याद रहे अगर किसी दिन मेरे पास खाने के लिए एक जीव नहीं आया तो मैं सबको खा जाऊँगा।“ सभी जानवरों ने “ऐसा ही होगा” कहकर वहाँ से विदा ली और उसके बाद बिना भय के जंगल में रहने लगे। रोज दोपहर को एक जीव सिंह के पास पहुँच जाता था। 

    एक दिन सिंह के पास जाने का क्रम खरगोश का था। खरगोश अपनी मृत्यु के डर से धीरे-धीरे चलते हुए किसी तरह सिंह को मारकर अपनी जान बचाने के उपाय सोचने लगा। रास्ते में उसे एक कुआं दिखा। उसने झाँककर देखा तो उसे अपनी परछाई दिखाई दी। इससे खरगोश को सिंह से छुटकारा पाने का एक उपाय सूझा। 

    खरगोश धीरे-धीरे चलता हुआ शाम के समय सिंह के पास पहुंचा। भासुरक भूख से व्याकुल हो रहा था और छोटे से खरगोश को देखकर उसका क्रोध और भी बढ़ गया और उसने खरगोश से कहा, “अरे नीच! एक तो इतने छोटे हो और दूसरे इतनी देरी से आये हो। इस अपराध के लिए मैं तुमको खाने के बाद सुबह सभी हिरणों को मारकर इसका दंड दूंगा।“ 

    खरगोश ने दबी हुई आवाज में कहा, “स्वामी! इसमें न मेरा अपराध है और न ही बाकी जानवरों का।“

  • किसी जंगल में अनेक जल-जन्तुओं से भरा एक तालाब था। वहाँ रहने वाला एक बगुला बूढ़ा हो जाने के कारण मछलियाँ पकड़ने में असमर्थ हो गया था। भूख से व्याकुल हो जाने के कारण वह नदी के किनारे बैठा आँसू बहाकर रो रहा था। समय एक केकड़े ने उसे रोता देखकर उत्सुकता और सहानुभूति के साथ पूछा, “मामा! आज तुम अपने भोजन की खोज छोड़कर यहाँ बैठे आँसू क्यों बहा रहे हो?”

    बगुला बोला, “तुम सही कह रहे हो। मछलियों को खाने से मुझे वैराग्य हो गया है। अब मैं आमरण व्रत ले लिया है।“ केकड़े ने कहा, “मामा! तुम्हारे इस वैराग्य का कारण क्या है?” 

    बगुले ने उत्तर दिया, ”मैं इसी तालाब में पैदा हुआ और यहीं बूढ़ा हुआ। परंतु आज ही मैंने सुन है कि अगले बारह वर्ष तक वर्षा नहीं होगी। इस कारण अब यह तालाब सूख जाएगा और इसमें रहने वाले सभी प्राणी मृत्यु को प्राप्त होंगे। बस इसी दुःख से मैं दुखी हूँ।“

    केकड़े ने तालाब में रहने वाले और भी जंतुओं को बगुले की कही हुई बात बताई। डर से व्याकुल होकर सभी प्राणी उस बगुले के पास आए और एक स्वर में बोले, “मामा! क्या हमारे बचने का कोई उपाय है?” बगुला बोला, “इस तालाब से थोड़ी ही दूर पर एक बहुत बड़ा तालाब है। उसमें इतना पानी है कि बारह वर्ष तो क्या चौबीस वर्षों तक भी अगर वर्षा ना हो तो भी नहीं सूखेगा। अगर तुम लोग चाहो तो मैं एक-एक कर तुम सभी तो उस तालाब में ले जाकर छोड़ देता हूँ।“ 

    इस प्रकार बगुला रोज कुछ मछलियाँ तालाब से ले जाता और उनको एक चट्टान में ले जाकर खा लेता। ऐसा कई दिनों तक चलता रहा और बगुले बिना किसी प्रयास के भर पेट भोजन मिलने लगा। 

    एक दिन केकड़े ने बगुले से कहा, “मामा! मेरी बात आपसे सबसे पहले हुई थी और अभी तक आपने मुझे उस बड़े तालाब में नहीं छोड़ा। आप कृपा करके मेरे प्राणों की भी रक्षा करें।“

    दुष्ट बगुले ने सोचा, “रोज-रोज मछलियाँ खाकर मेरा भी मन भर गया है। आज इस केकड़े को ही खाता हूँ।“ ऐसा सोचकर उसने केकड़े को अपनी पीठ पर बिठा लिया और चट्टान की ओर उड़ने लगा। 

    केकड़े ने दूर से चट्टान पर मछलियों की हड्डियों का ढेर देखा तो डर गया और बगुले से बोला, “मामा! वह दूसरा तालाब कितनी दूर है? मुझे अपने ऊपर इतनी देर से बिठाकर तुम थक गए होगे।“

    बगुले ने भी सोचा यह जल में रहने वाला केकड़ा यहाँ मेरा क्या बिगाड़ लेगा और बोला, “केकड़े! दूसरा कोई तालाब नहीं है। यह तो मैंने मेरे भोजन का प्रबन्ध किया है। आज तू भी मेरा भोजन बनेगा।“ 

    उसके ऐसा कहने पर केकड़े ने अपने दांतों से उसकी गर्दन जकड़ ली, जिससे वह दुष्ट बगुला मर गया। 

    बगुले के मर जाने के बाद केकड़ा धीरे-धीरे तालाब वापस पहुंचा और सभी तो बगुले की धूर्तता के विषय में बताया। 

    इसीलिए कहते हैं कि कभी भी चपलतावश अधिक नहीं बोलना चाहिए। 

  • किसी स्थान में एक बहुत बड़ा बरगद का पेड़ था। वहाँ एक कौआ और कौवी रहते थे। कौवी जब भी अंडे देती पेड़ के नीचे बिल में रहने वाला काला सांप उन अंडों को खा जाता। इस बात से दुखी होकर वो अपने मित्र सियार के पास जाकर बोले, “मित्र! ऐसी परिस्थिति में हमें क्या करना चाहिए? हम उस भयानक सांप से अपने बच्चों की रक्षा कैसे करें, इसका कुछ उपाय बताइये।“

    सियार ने कौवे की बात सुनकर उससे कहा, “जिस शत्रु से लड़कर नहीं जीता जा सकता, उससे चतुराई से जीतना चाहिए। हमें इस सांप से मुक्ति का कुछ उपाय सोचना पड़ेगा।“ सियार ने कौआ और कौवी को सांप को मारने का एक उपाय सुझाया। 

    सियार की बात मानकर कौआ और कौवी किसी धनवान व्यक्ति को ढूंढने लगे। उनकी दृष्टि पास में ही तालाब पर नहाते हुए राजा पर पड़ी। राजा के वस्त्र और आभूषण तालाब के किनारे पर रखे हुए थे। कौवी ने एक सोने का हार अपनी चोंच में दबाया और उड़ गया। राजा के रक्षक उसके पीछे-पीछे भागे। कौवी ने वह हार बरगद के पेड़ के नीचे के सांप के बिल में डाल दिया। 

    जब सैनिक वह हार लेने के लिए बिल के पास गए तो उन्हें भयानक काला सांप दिखा। सैनिकों ने उस सांप को मार डाला और हार लेकर चले गए। 

    इस प्रकार सांप के मर जाने के बाद कौआ और कौवी अपने घोंसले में सुख से रहने लगे। 

    इसीलिए कहते हैं कि जो काम चतुराई से हो सकता है वहाँ बल प्रयोग नहीं करना चाहिए।