エピソード
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परिन्दे पर कवि को पहचानते हैं - राजेश जोशी
सालिम अली की क़िताबें पढ़ते हुए
मैंने परिन्दों को पहचानना सीखा।
और उनका पीछा करने लगा
पाँव में जंज़ीर न होती तो अब तक तो .
न जाने कहाँ का कहाँ निकल गया होता
हो सकता था पीछा करते-करते मेरे पंख उग आते
और मैं उड़ना भी सीख जाता
जब परिन्दे गाना शुरू करतें
और पहाड़ अँधेरे में डूब जाते।
ट्रक ड्राइवर रात की लम्बाई नापने निकलते
तो अक्सर मुझे साथ ले लेते
मैं परिन्दों के बारे में कई कहानियाँ जानता था
मुझे किसी ने बताया था कि जिनके पास पंख नहीं होते
और जिन्हें उड़ना नहीं आता
वे मन-ही-मन सबसे लम्बी उड़ान भरते हैं
इसलिए रास्तों में जो जान-पहचानवाले लोग मिलते
मुझसे हमेशा परिन्दों की कहानियाँ सुनाने को कहते
दोस्त जब पूछते थे तो मैं अक्सर कहता था
मुझे चिट्ठी मत लिखना
परिन्दों का पीछे करनेवाले का
कोई स्थायी पता नहीं होता
मुझे क्या ख़बर थी कि एक दिन ऐसा आएगा
जब चिट्ठी लिखने का चलन ही अतीत हो जाएगा
न जाने किन कहानियों से उड़ान भरते
कुछ अजीब-से परिन्दे हमारे पास आते थे
जो गाते-गाते एक लपट में बदल जाते
और देखते-देखते राख हो जाते
पर एक दिन बरसात आती
और वे अपनी ही राख से फिर पैदा हो जाते
पता नहीं हमारे आकाश में उड़नेवाले परिन्दे
कहानियों से निकलकर आए परिन्दों के बारे में
कुछ जानते थे या नहीं...
उनकी आँख देखकर लेकिन लगता था
कि उन कवियों को परिन्दे पर जानते हैं
जो क़ुक़्नुस जैसे हज़ारों काल्पनिक परिन्दों की -
कहानियाँ बनाते हैं ।
पाँव में ज़ंजीर न होती तो शायद
एक न एक दिन मैं भी किसी कवि के हत्थे चढ़कर
ऐसे ही किसी परिन्दे में बदल गया होता!
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एक तिनका | अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
मैं घमण्डों में भरा ऐंठा हुआ।
एक दिन जब था मुण्डेरे पर खड़ा।
आ अचानक दूर से उड़ता हुआ।
एक तिनका आँख में मेरी पड़ा।
मैं झिझक उठा, हुआ बेचैन-सा।
लाल होकर आँख भी दुखने लगी।
मूँठ देने लोग कपड़े की लगे।
ऐंठ बेचारी दबे पाँवों भगी।
जब किसी ढब से निकल तिनका गया।
तब 'समझ' ने यों मुझे ताने दिए।
ऐंठता तू किसलिए इतना रहा।
एक तिनका है बहुत तेरे लिए।
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बहुत दिनों के बाद | नागार्जुन
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी भर देखी
पकी-सुनहली फ़सलों की मुस्कान
- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी भर सुन पाया
धान कूटती किशोरियों की कोकिलकंठी तान
- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी भर सूँघे
मौलसिरी के ढेर-ढेर-से ताज़े-टटके फूल
- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैं जी भर छू पाया
अपनी गँवई पगडंडी की चंदनवर्णी धूल
- बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी भर तालमखाना खाया
गन्ने चूसे जी भर
-बहुत दिनों के बाद
बहुत दिनों के बाद
अबकी मैंने जी भर भोगे
गंध-रूप-रस-शब्द-स्पर्श सब साथ-साथ इस भू पर
- बहुत दिनों के बाद
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उठ जाग मुसाफ़िर | वंशीधर शुक्ल
उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई,
अब रैन कहाँ जो सोवत है।
जो सोवत है सो खोवत है,
जो जागत है सो पावत है।
उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई,
अब रैन कहाँ जो सोवत है।
टुक नींद से अँखियाँ खोल ज़रा
पल अपने प्रभु से ध्यान लगा,
यह प्रीति करन की रीति नहीं
जग जागत है, तू सोवत है।
तू जाग जगत की देख उड़न,
जग जागा तेरे बंद नयन,
यह जन जाग्रति की बेला है,
तू नींद की गठरी ढोवत है।
लड़ना वीरों का पेशा है,
इसमें कुछ भी न अंदेशा है;
तू किस ग़फ़लत में पड़ा-पड़ा
आलस में जीवन खोवत है।
है आज़ादी ही लक्ष्य तेरा,
उसमें अब देर लगा न ज़रा;
जब सारी दुनिया जाग उठी
तू सिर खुजलावत रोवत है।
उठ जाग मुसाफ़िर! भोर भई
अब रैन कहाँ जो सोवत है।
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मौत इक गीत रात गाती थी
ज़िन्दगी झूम झूम जाती थी
ज़िक्र था रंग-ओ-बू का और दिल में
तेरी तस्वीर उतरती जाती थी
वो तिरा ग़म हो या ग़म-ए-आफ़ाक़
शम्मअ सी दिल में झिलमिलाती थी
ज़िन्दगी को रह-ए-मोहब्बत में
मौत ख़ुद रौशनी दिखाती थी
जल्वा-गर हो रहा था कोई उधर
धूप इधर फीकी पड़ती जाती थी
ज़िन्दगी ख़ुद को राह-ए-हस्ती में
कारवाँ कारवाँ छुपाती थी
हमा-तन-गोशा ज़िन्दगी थी फ़िराक़
मौत धीमे सुरों में गाती थी
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सिर छिपाने की जगह | राजेश जोशी
न उन्होंने कुंडी खड़खड़ाई न दरवाज़े पर लगी घंटी बजाई
अचानक घर के अन्दर तक चले आए वे लोग
उनके सिर और कपड़े कुछ भीगे हुए थे
मैं उनसे कुछ पूछ पाता, इससे पहले ही उन्होंने कहना शुरू कर दिया
कि शायद तुमने हमें पहचाना नहीं ।
हाँ...पहचानोगे भी कैसे
बहुत बरस हो गए मिले हुए
तुम्हारे चेहरे को, तुम्हारी उम्र ने काफ़ी बदल दिया है
लेकिन हमें देखो हम तो आज भी बिलकुल वैसे ही हैं
हमारे रंग ज़रूर कुछ फीके पड़ गए हैं
लेकिन क्या तुम सचमुच इन रंगों को नहीं पहचान सकते
क्या तुम अपने बचपन के सारे रंगों को भूल चुके हो
भूल चुके हो अपने हाथों से खींची गई सारी रेखाओं को
तुम्हारी स्मृति में क्या हम कहीं नहीं हैं?
याद करो यह उन दिनों की बात है जब तुम स्कूल में पढ़ते थे
आठवीं क्लास में तुमने अपनी ड्राइंग कॉपी में एक तस्वीर बनाई थी
और उसमें तिरछी और तीखी बौछारोंवाली बारिश थी
जिसमें कुछ लोग भीगते हुए भाग रहे थे
वह बारिश अचानक ही आ गई थी शायद तुम्हारे चित्र में
चित्र पूरा करने की हड़बड़ी में तुम सिर छिपाने की जगहें बनाना भूल गए थे
हम तब से ही भीग रहे थे और तुम्हारा पता तलाश कर रहे थे
बड़े शहरों की बनावट अब लगभग ऐसी ही हो गई है
जिनमें सड़कें हैं या दुकानें ही दुकानें हैं
लेकिन दूर-दूर तक उनमें कहीं सिर छिपाने की जगह नहीं
शक करने की आदत इतनी बढ़ चुकी है कि तुम्हें भीगता हुआ देखकर भी
कोई अपने ओसारे से सिर निकालकर आवाज़ नहीं देता
कि आओ यहाँ सिर छिपा लो और बारिश रुकने तक इन्तज़ार कर लो
घने पेड़ भी दूर-दूर तक नहीं कि कोई कुछ देर ही सही
उनके नीचे खड़े होकर बचने का भरम पाल सके
इन शहरों के वास्तुशिल्पियों ने सोचा ही नहीं होगा कभी
कि कुछ पैदल चलते लोग भी इन रास्तों से गुज़रेंगे
एक पल को भी उन्हें नहीं आया होगा ख़याल
कि बरसात के अचानक आ जाने पर कहीं सिर भी छिपाना होगा उन्हें
सबको पता है कि बरसात कई बार अचानक ही आ जाती है
सबके साथ कभी न कभी हो चुका होता है ऐसा वाकया
लेकिन इसके बाद भी हम हमेशा छाता लेकर तो नहीं निकलते
फिर अचानक उनमें से किसी ने पूछा
कि तुम्हारे चित्र में होती बारिश क्या कभी रुकती नहीं
तुम्हारे चित्र की बारिश में भीगे लोगों को तो
तुम्हारे ही चित्र में ढूँढ़नी होगी कहीं
सिर छिपाने की जगह
उन्होंने कहा कि हम बहुत भीग चुके हैं जल्दी करो और बताओ
कि क्या तुमने ऐसा कोई चित्र बनाया है...
जिसमें कहीं सिर छिपाने की जगह भी हो?
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मेरे बेटे | कविता कादम्बरी
मेरे बेटे
कभी इतने ऊँचे मत होना
कि कंधे पर सिर रखकर कोई रोना चाहे तो
उसे लगानी पड़े सीढ़ियाँ
न कभी इतने बुद्धिजीवी
कि मेहनतकशों के रंग से अलग हो जाए तुम्हारा रंग
इतने इज़्ज़तदार भी न होना
कि मुँह के बल गिरो तो आँखें चुराकर उठो
न इतने तमीज़दार ही
कि बड़े लोगों की नाफ़रमानी न कर सको कभी
इतने सभ्य भी मत होना
कि छत पर प्रेम करते कबूतरों का जोड़ा तुम्हें अश्लील लगने लगे
और कंकड़ मारकर उड़ा दो उन्हें बच्चों के सामने से
न इतने सुथरे ही होना
कि मेहनत से कमाए गए कॉलर का मैल छुपाते फिरो महफ़िल में
इतने धार्मिक मत होना
कि ईश्वर को बचाने के लिए इंसान पर उठ जाए तुम्हारा हाथ
न कभी इतने देशभक्त
कि किसी घायल को उठाने को झंडा ज़मीन पर न रख सको
कभी इतने स्थायी मत होना
कि कोई लड़खड़ाए तो अनजाने ही फूट पड़े हँसी
और न कभी इतने भरे-पूरे
कि किसी का प्रेम में बिलखना
और भूख से मर जाना लगने लगे गल्प।
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बाद के दिनों में प्रेमिकाएँ | रूपम मिश्रा
बाद के दिनों में प्रेमिकाएँ पत्नियाँ बन गईं
वे सहेजने लगीं प्रेमी को जैसे मुफलिसी के दिनों में अम्मा घी की गगरी सहेजती थीं
वे दिन भर के इन्तजार के बाद भी ड्राइव करते प्रेमी से फोन पर बात नहीं करतीं
वे लड़ने लगीं कम सोने और ज़्यादा शराब पीने पर
प्रेमी जो पहले ही घर में बिनशी पत्नी से परेशान था
अब प्रेमिका से खीजने लगा
वो सिर झटक कर सोचता कि कहीं गलती से
उसने फिर से तो एक ब्याह नहीं कर लिया
पत्नियाँ जो कि फोन पर पति की लरजती मुस्कान देख खरमनशायन रहतीं
उनकी अधबनी पूर्वधारणाएँ गझिन होतीं
प्रेमी यहाँ भी चूकते, वे मुस्कान और सम्बन्ध दोनों सहेजने में नाकाम होते
जबकि प्रेमिकाएँ यहाँ भी ज़िम्मेदार ही साबित रहीं
वे खचाखच भरी मेट्रो और बस में भी हँसी के साथ इमेज भी मैनेज करतीं
प्रेमिकाएँ भी खुद के पत्नी बनने पर थोड़ी-सी हैरान ही थीं
आख़िर ये पत्नीपना हममें आता कहाँ से है
प्रेमी खिसियाए रहे कि ये लड़कियाँ कभी कायदे से आधुनिक नहीं हो सकतीं
हमेशा बीती बातें, बीती रातों के ही गीत गाती हैं
ख़ैर ये वो प्रेमी नहीं थे जो प्रेमिका का फोन खुद रिचार्ज कराते बाद उसका रोना रोते
ये करिअरिज्म व बाजार के दरमेसे प्रेमी थे जो जीवन की दौड़ में सरपट भाग रहे थे
और इस दौड़ारी में प्रेम उनकी जेब से अक्सर गिर कर बिला जाता है।
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ईश्वर और प्याज़ | केदारनाथ सिंह
क्या ईश्वर प्याज़ खाता है?
एक दिन माँ ने मुझसे पूछा
जब मैं लंच से पहले
प्याज़ के छिलके उतार रहा था
क्यों नहीं माँ मैंने कहा
जब दुनिया उसने बनाई
तो गाजर मूली प्याज़ चुकन्दर-
सब उसी ने बनाया होगा
फिर वह खा क्यों नहीं सकता प्याज़?
वो बात नहीं-
हिन्दू प्याज़ नहीं खाता
धीरे-से कहती है वह
तो क्या ईश्वर हिन्दू हैं माँ?
हँसते हुए पूछता हूँ मैं
माँ अवाक देखती है मुझे
उधर छिल चुकने के बाद
अब पृथ्वी जैसा गोल कत्थई प्याज़
मेरी हथेली पर था
और ईश्वर कहीं और हो या न हो
उन आँखों में उस समय ज़रूर कहीं था
मेरे छोटे-से प्याज़ में
अपना वजूद खोजता हुआ
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अनंत जन्मों की कथा | विश्वनाथ प्रसाद तिवारी
मुझे याद है
अपने अनंत जन्मों की कथा
पिता ने उपेक्षा की
सती हुई मैं
चक्र से कटे मेरे अंग-प्रत्यंग
जन्मदात्री माँ ने अरण्य में छोड़ दिया असहाय
पक्षियों ने पाला
शकुंतला कहलाई
जिसने प्रेम किया
उसी ने इनकार किया पहचानने से
सीता नाम पड़ा
धरती से निकली
समा गई अग्नि-परीक्षा की धरती में
जन्मते ही फेंक दी गई आम्र कुंज में
आम्रपाली कहलाई;
सुंदरी थी
इसलिए पूरे नगर का हुआ मुझ पर अधिकार
जली मैं वीरांगना
बिकी मैं वारांगना
देवदासी द्रौपदी
कुलवधू नगरवधू
कितने-कितने मिले मुझे नाम-रूप
पृथ्वी, पवन
जल, अग्नि, गगन
मरु, पर्वत, वन
सबमें व्याप्त है मेरी व्यथा।
मुझे याद है
अपने अनंत जन्मों की कथा
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खुल कर | नंदकिशोर आचार्य
खुल कर हो रही बारिश
खुल कर नहाना चाहती लड़की
अपनी खुली छत पर।
किन्तु लोगों की खुली आँखें
उसको बन्द रखती हैं
खुल कर हो रही
बरसात में।
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जानना ज़रूरी है | इन्दु जैन
जब वक्त कम रह जाए
तो जानना ज़रूरी है कि
क्या ज़रूरी है
सिर्फ़ चाहिए के बदले चाहना
पहचानना कि कहां हैं हाथ में हाथ दिए दोनों
मुखामुख मुस्करा रहे हैं कहां
फ़िर इन्हें यों सराहना
जैसे बला की गर्मी में घूंट भरते
मुंह में आई बर्फ़ की डली।
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हम ओर लोग | केदारनाथ अग्रवाल
हम
बड़े नहीं
फिर भी बड़े हैं
इसलिए कि
लोग जहाँ गिर पड़े हैं
हम वहाँ तने खड़े हैं
द्वन्द की
लड़ाई भी
साहस से लड़े हैं;
न दुख से डरे,
न सुख से मरे हैं;
काल की मार में
जहाँ दूसरे झरे हैं,
हम वहाँ अब भी
हरे-के-हरे हैं।
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बारिश की भाषा | शहंशाह आलम
उसकी देह कितनी बातूनी लग रही है
जो बारिश से बचने की ख़ातिर खड़ी है
जामुन पेड़ के नीचे जामुनी रंग के कपड़े में
‘जामुन ख़रीदकर घर लाए कितने दिन हुए’
हज़ारों मील तक बरस रही बारिश के बीच
वह लड़की क्या ऐसा सोच रही होगी
या यह कि इस शून्यता में जामुन का पेड़
बारिश से उसको कितनी देर बचा पाएगा
बारिश किसी नाव की तरह
बाँधी नहीं जा सकती, यह सच है
जामुन का पककर गिरना भी
बाँधा नहीं जा सकता
बारिश को रुकना होता है तो ख़ुद रुक जाती है
बरसना होता है तो ख़ुद बरसने लगती है घनघोर
तभी बारिश है लड़की है जामुन का पेड़ है
तभी बारिश की भाषा है मेरे कानों तक सुनाई देती।
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वे कैसे दिन थे | कीर्ति चौधरी
वे कैसे दिन थे
जब चीज़ें भागती थीं
और हम स्थिर थे
जैसे ट्रेन के एक डिब्बे में बंद झाँकते हुए
ओझल होते थे दृश्य
पल के पल में—
...कौन थी यह तार पर बैठी हुई
बुलबुल, गौरय्या या नीलकंठ?
आसमान को छूता हुआ
सवन का जोड़ा था?
दूरी पर झिलमिल-झिलमिल करती
नदिया थी?
या रेती का भ्रम?
कभी कम कभी ज़्यादा
प्रश्न ही प्रश्न उठते थे
हम विमूढ़ ठगे-से
सुलझाते ही रहते
और चीज़ें हो जाती थीं ओझल
वे कैसे दिन थे
जो रहे नहीं।
सीख ली हमने चाल समय की
भागने लगे सरपट
बदल गए सारे दृश्य
शाखों पर दुबकी भूरी चिड़ियों ने
कुतूहल से देखा हमें
हवा ने बढ़ाई बाँह
रसभीनी गंधमयी
लेकिन हम रुके नहीं
हमने सुनी ही नहीं
झरनों की कलकल
ताड़ पत्रों की बाँसुरी
पोखर में खिले रहे दल के दल कमल
और मुरझाए-से हम
आगे और आगे
भागते ही रहे
छोड़ते चले ही गए
जो कुछ पा सकते थे
हाथ रही केवल
यही अंतहीन दौड़
और छूटते दिनों के संग
पीछे सब छूट गया।
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दिन भर | रामदरश मिश्रा
आज दिन भर कुछ नहीं किया
सुबह की झील में
एक कंकड़ी मारकर बैठ गया तट पर
और उसमें उठने वाली लहरों को देखता रहा
शाम को लोग घर लौटे तो
न जाने क्या-क्या सामान थे उनके पास
मेरे पास कुछ नहीं था
केवल एक अनुभव था
कंकड़ी और लहरों के सम्बन्ध से बना हुआ।
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औरत की गुलामी | डॉ श्योराज सिंह ‘बेचैन’
किसी आँख में लहू है-
किसी आँख में पानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
पैदा हुई थी जिस दिन-
घर शोक में डूबा था।
बेटे की तरह उसका-
उत्सव नहीं मना था।
बंदिश भरा है बचपन-
बोझिल-सी जवानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
तालीम में कमतर है--
बाहरी हवा ज़हर है।
लड़का कहीं भी जाए-
उस पर कड़ी नज़र है।
उसे जान गँवा कर भी-
हर रस्म निभानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
कभी अग्नि परीक्षा में-
औरत ही तो बैठी थी।
होती थी जब सती तो-
औरत ही तो होती थी।
उसी जुल्म की बकाया--
पर्दा भी निशानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
कानून समाजों के-
एकतरफा नसीहत है।
जिसे दिल से नहीं चाहा-
वही प्यार मुसीबत है।
दौलत-पसन्द दुनिया-
मतलब की दीवानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
अब वक़्त है वो अपने-
आयाम ख़ुद बनाये।
तालीम हो या सर्विस-
अपने हकूक पाये।
मिलजुल के विषमता-
की दीवार गिरानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
ससुराल सताये फिर-
मुमकिन ही नहीं होगा।
स्टोव जलाये फिर-
मुमकिन ही नहीं होगा।
दिन-चैन के आएँगे-
यह रात तो जानी है।
औरत की गुलामी भी-
एक लम्बी कहानी है।
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चल इंशा अपने गाँव में | इब्ने इंशा
यहाँ उजले उजले रूप बहुत
पर असली कम, बहरूप बहुत
इस पेड़ के नीचे क्या रुकना
जहाँ साये कम,धूप बहुत
चल इंशा अपने गाँव में
बेठेंगे सुख की छाओं में
क्यूँ तेरी आँख सवाली है ?
यहाँ हर एक बात निराली है
इस देस बसेरा मत करना
यहाँ मुफलिस होना गाली है
जहाँ सच्चे रिश्ते यारों के
जहाँ वादे पक्के प्यारों के
जहाँ सजदा करे वफ़ा पांव में
चल इंशा अपने गाँव में
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सात पंक्तियाँ - मंगलेश डबराल
मुश्किल से हाथ लगी एक सरल पंक्ति
एक दूसरी बेडौल-सी पंक्ति में समा गई
उसने तीसरी जर्जर क़िस्म की पंक्ति को धक्का दिया
इस तरह जटिल-सी लड़खड़ाती चौथी पंक्ति बनी
जो ख़ाली झूलती हुई पाँचवीं पंक्ति से उलझी
जिसने छटपटाकर छठी पंक्ति को खोजा जो आधा ही लिखी गई थी
अन्ततः सातवीं पंक्ति में गिर पड़ा यह सारा मलबा।
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बहुरूपिया | मदन कश्यप
जब वह पास आया
तो पाँव में प्लास्टिक की चप्पल देखकर
एकदम से हँसी फूट पड़ी
फिर लगा
भला कैसे संभव है
महानगर की क्रूर सड़कों पर नंगे पाँव चलना
चाहे वह बहुरूपिया ही क्यों न हो
वैसे उसने अपनी तरफ़ से कोशिश की थी
दुम इतनी ऊँची लगायी थी
कि वह सिर से काफ़ी ऊपर उठी दिख रही थी
बाँस की खपच्चियों पर पीले काग़ज़ साटकर बनी गदा
कमज़ोर भले हो
चमकदार ख़ूब थी
सिर पर गत्ते की चमकती टोपी थी
चेहरे और हाथ-पाँव पर ख़ूब लाल रंग पोत रखा था
लेकिन लाल लँगोटे की जगह धारीदार अंडरवियर
और बदन में सफ़ेद बनियान
उसकी पोल खोल रही थी
उसने हनुमान का बाना धरा था
पर इतने भर से भला क्या हनुमान लगता
वह भी इस 'टेक्नो मेक-अप' के युग में जहाँ फ़िल्मों और टीवी सीरियलों में
तरह-तरह के हनुमान उछलकूद करते दिखते रहते हैं वह भी समझ रहा था अपनी दिकदारियों को
तभी तो चाल में हनुमान होने की ठसक नहीं थी।
बनने की विवशता
और नहीं बन पाने की असहायता के बीच फँसा हुआ एक उदास आदमी था वह
जो जीने का और कोई दूसरा तरीक़ा नहीं जानता था
इस बहुरूपिया लोकतन्त्र में
किसी साधारण तमाशागर के लिए
बहुत कठिन है बहुरूपिया बनना और बने रहना
जबकि निगमित हो रही है साम्प्रदायिकता प्रगतिशील कहला रहा है जातिवाद
समृद्धि का सूचकांक बन गयी हैं किसानों की आत्महत्याएँ
और आदिवासियों के खून से सजायी जा रही है भूमण्डलीकरण की अल्पना
बस केवल बहुरूपिया है जो बहुरूपिया नहीं है!
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