Episoder
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श्लोक 67:शंकराचार्य जी कहते हैं कि आत्मा हृदय में निवास करती है। 'हृदय' शब्द का प्रयोग अक्सर बुद्धि के साथ किया जाता है। इसका कारण यह है कि बुद्धि आत्मा के सबसे करीब है। बुद्धि का जानना ही हमारा 'जानना' है। गुरु हमारी बुद्धि को ज्ञान का दान देते हैं । इसके फलस्वरूप, व्यक्ति ही ज्ञान का भण्डार है। संपूर्ण विश्व ... आत्मा के प्रकाश में ही जगमगाता है। यही सर्वोच्च ज्ञान है।स्वयं ... स्वयं को.... स्वयं से.... जानता है।श्लोक 68:शंकराचार्य जी कहते हैं कि जिसने सभी व्यर्थ सांसारिक गतिविधियों को त्याग दिया है । वह केवल उसकी आराधना करता है जो : *दिशा, *स्थान *समय - से सीमित नहीं बल्कि से स्वतंत्र है। और जो - सर्वव्यापी -शाश्वत, -निष्कलंक, - सदैव आनंदित "आत्मा " है । एकमात्र धाम .... जो शरीर के जीते जी .... व्यक्ति को बंधन मुक्त कर सकता है .....वह है (स्वयं)आत्मा रूपी पावन मंदिर। ऐसा व्यक्ति यह एहसास करने में सक्षम हो जाता है कि वही *सर्वसर्वव्यापी, *अमर* पूर्ण है। बाहरी तीर्थयात्रा करने से... सांसारिक सुखों के रूप में ... पुण्य कर्म का फल ज़रूर मिलेगा। और इस सुख के साथ दुःख भी आते ही हैं। यह सब करके भी आत्मा के समान शाश्वत आनंद नहीं मिलेगा।आचार्य कहते हैं- पुण्य कर्मों के फल के पीछे मत भागो और न ही नीच कर्म करो। किसी भी बाहरी देवी देवता की पूजा करने की आवश्यकता नहीं है। आत्मा की उपासना ही ब्रह्मन है।Verse 67Atman abides in the heart-space, says Shankaracharya. The word ‘heart’ is often used interchangeably with the intellect, the reason being intellect is close to the Self. The intellect’s knowing is my ‘knowing’. Guru endows the intellect with jnana that in effect the individual is the essence of jnana. The entire world shines in the light of the Self, the Atman. This is the highest knowledge. The Self knows the Self by the Self.Verse 68Shankar Acharya says the one who has relinquished all the futile worldly activities worships that which is independent of constraints of direction, space and time; that which is omnipresent; the eternal, the immaculate, the ever-blissful Atman. The only pilgrimage that would liberate any one while the body is still alive, is the holy shrine of one’s own Self/Atman.It enables one to realise that he/she is the all-knowing, all-pervading, immortal absolute existence.External pilgrimage would give one the fruits of virtuous karma (punya) in form of worldly pleasures; along with the pleasures come sorrow. It would not give the eternal bliss of Atman.Acharya says - don’t run after fruits of virtuous karmas neither indulge in vile karmas.There is no a need to worship any external deities, the only thing to worship is at the altar of Atman.
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Mangler du episoder?
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Verse 66
Just as smelting gold in a furnace frees it from the impurities, likewise the fire of knowledge will free an individual’s mind-intellect of all its impurities. Afflictions are present in all minds; no individual can claim to know everything. Layers and layers of impurities lie in the mind, in form of old samskaras, desires, attachments, aversions etc. These keep arising from time to time.
To get rid of these flaws, one needs to focus on oneself and become aware of his/her own imperfections and inadequacies. The fire of knowledge will be ignited by
REPEATED LISTENING,
CONSISTENT CONTEMPLATION,
with appropriate MEDITATIVE PRACTICES.
No matter how bad a person may be, that individual’s substratum is Brahman.
It is the mind that needs to be purified/ beautified - not the body, not the Atman
श्लोक 66:
जिस प्रकार सोने को भट्टी में गलाने से उसकी अशुद्धियों दूर होती है। ठीक उसी प्रकार , ज्ञान की अग्नि भी ....व्यक्ति के ...मन-बुद्धि को अशुद्धियों से मुक्त कर देगी।
क्लेश सभी मनों में मौजूद हैं । कोई भी व्यक्ति सब कुछ जानने का दावा ही नहीं कर सकता। अशुद्धियों की परतें.... जैसे -पुराने संस्कार, इच्छाएँ, राग-द्वेष आदि... के रूप में मन में भरी पड़ी हैं, जो समय-समय पर उथल-पुथल करती रहती हैं।
इन कमियों से छुटकारा पाने के लिए व्यक्ति को .....खुद पर ध्यान केंद्रित करने और अपनी कमजोरियों के प्रति जागरूक होने की जरूरत है।
ज्ञान की अग्नि को प्रज्वलित करना होगा। इसके लिए
*बार-बार श्रवण
*लगातार चिंतन,
*उचित ध्यान और अभ्यास करते रहना होगा।
कोई भी व्यक्ति कितना भी बुरा क्यों न हो, उसका आधार एकमात्र ब्रह्म ही है।
अतः ,यह मन ही है... जिसे शुद्ध/सुंदर बनाने की जरूरत है। शरीर और आत्मा को इसकी आवश्यकता नहीं है। -
श्लोक 65:
*सदैव चेतन,
*सदैव आनंदमय ,
*परम सत्य ,
*भीतर और बाहर सर्वव्यापी....
ब्रह्मन को देखने के लिए.... ज्ञान रूपी आंखों की आवश्यकता होती है।
ऐसा नहीं है कि गुरु यह ज्ञान-चक्षु प्रदान करते हैं। यह तो प्रत्येक व्यक्ति के पास पहले से ही हैं। बात सिर्फ इतनी है कि यह अज्ञानता से ढके हुए हैं। बस ये पर्दा हटने की देर है..चाहे कोई व्यक्ति कितना भी बुरा क्यों न हो.... गुरु सदैव सभी में ब्रह्मन का ही अंश देखते हैं। यही कारण है कि वे किसी को भी बुरा या नकारात्मक नहीं कहते। और प्रबुद्ध गुरु न तो किसी से आसक्त होते हैं और न ही किसी से घृणा करते हैं। यह वो चिकित्सकय हैं... जो हमारी बौद्धिक ज्ञान का विकास करते हैं। इस प्रकार हमें ...सत्य.... को उसके वास्तविक रूप में देखने में सक्षम बनाते हैं।
Verse 65
Eye of wisdom is needed to see the ever-conscious, the ever blissful supreme Truth - omnipresent Brahman within and without. It is not that the master bestows this eye of wisdom, it is in possession of every individual; it is just that this eye is shrouded by the veil of ignorance. Master just removes this veil.
No matter how evil a person is, the masters always see the substratum of Brahman in everyone. That is the reason they do not label anyone as bad or negative. And the enlightened masters are neither attached to anyone, nor do they hate anyone. Masters Are the doctors that treat our intellectual blindness and thus enabling us to see the truth as it really is. -
Verse 64
All that is seen, all that is heard in this world - is not different from Brahman.
All that is perceived is Brahman. The inert and the illusion can be perceived only because of the light of Brahman. The observed(world) is inert and untrue; the Observer(Brahman) is the sentient, absolute truth.
The substratum of the observed(inert and illusory) world is the all-pervasive Brahman.
No matter how illusory in the world is, it’s substratum is the Brahman.
The observed is Brahman and the Observer is Brahman.
On the path of devotion, a devotee sees himself to be separate from God. He regards himself as a feeble jiva and imagines God to be an omnipotent higher entity. Duality is seen in the path of devotion, where there is a devotee and a God.
An enlightened being’s vision is cosmic and thus, he sees God in himself and in all others. Gaining the knowledge of reality, the enlightened being sees the world only as Brahman, as the ever- blissful, ever-conscious, eternal, non-dual absolute existence.
Vedanta sees everything as one, as non-dual absolute existence.
Calling it ‘one’ isn’t accurate as Brahman is non-dual (Advaita - indivisible non-duality)
‘I am and God is, I am and Brahman is’——- is duality
‘THERE IS NO I AND THERE IS NO YOU’ ——— is the philosophy of Advaita.
श्लोक 64:
इस संसार में जो कुछ दिखाई देता है और जो कुछ सुनाई देता है - वह ब्रह्मन ही है।
ब्रह्मन के प्रकाश के कारण ही ...जड़ और माया... का बोध होता है।
•जो दिखाई देता है...(संसार) ....वो जड़ और असत्य है।
•पर्यवेक्षक(ब्रह्मन).... संवेदनशील, पूर्ण सत्य है।
प्रेक्षित (जड़ और मायावी) जगत का आधार भी सर्वव्यापी ब्रह्मन ही है।
जब मन भटकना बंद कर देता है (योग और विभिन्न क्रियाओं के अभ्यास द्वारा)और दृढ़ वैराग्य विकसित कर लेता है, तब मन यह समझने में सक्षम हो जाता है कि दुनिया मायावी है और इसके सुख क्षणभंगुर हैं ; और शाश्वत आनंद भीतर से ही आता है।
संसार कितना भी मिथ्या क्यों न हो, उसका आधार ब्रह्मन ही है।देखा जाने वाला भी ब्रह्म है और देखने वाला... दोनों ब्रह्मन हैं ।यह भी कहा जा सकता है कि दृश्य और दृष्टा दोनों ब्रह्मन हैं।
भक्ति के मार्ग पर.... भक्त स्वयं को भगवान से अलग देखता है। वह स्वयं को एक कमज़ोर जीव मानता है और ईश्वर को एक सर्वशक्तिमान उच्च इकाई के रूप में कल्पना करता है। भक्ति मार्ग में द्वैत दिखाई देता है, जहाँ भक्त और भगवान होते हैं।
एक प्रबुद्ध व्यक्ति की दृष्टि लौकिक होती है और इस प्रकार, वह स्वयं में और अन्य सभी में ईश्वर को देखता है।
वास्तविकता का ज्ञान प्राप्त होने के पश्चात...प्रबुद्ध व्यक्ति दुनिया को केवल ब्रह्मन के रूप में :
•हमेशा आनंददायक, •हमेशा-जागरूक, •शाश्वत,
•अद्वैत
•पूर्ण अस्तित्व रूप में देखता है।
इस प्रकार ,वेदांत में हर चीज़ को:
-एक
-अद्वैत
-पूर्ण अस्तित्व के रूप में देखते हैं।
इसे 'एक' कहना भी सही नहीं है क्योंकि ब्रह्मन अद्वैत है (अद्वैत - अविभाज्य )
'मैं हूं और ईश्वर है, मैं हूं और ब्रह्म है'——-द्वैत है
'वहां न मैं है और न आप हैं'———अद्वैत का दर्शन है। -
Verse 63
Shankaracharya says world is ‘vilakshana’ - untrue, finite and full of suffering.
Brahman on the other hand is Truth, ever-conscious, ever-blissful, eternal, omnipresent absolute existence.
One may regard untruth to be the opposite of truth.
Shankaracharya says, they not of two separate jurisdictions, but the sovereignty of one and only one Brahman.
The untrue world also exists in Brahman.
The world is illusory, it is NOT A LIE but an illusion.
It does not mean that it doesn’t exist….. it means, what one perceives it to be - it is not that.
Brahman is the substratum of the untrue/ illusory world.
From gross matter to molecules to atom to subatomic particles, division goes on until one reaches a void where nothing exists.
When the particles cannot be subdivided any further - remains an invisible entity from which everything arises.
It is like emptiness. Emptiness that has infinite potential. Every thing has emerged from this nothing/emptiness and a point comes when everything becomes nothing.
When identified with mind, the individual is a jiva not Brahman.
If an individual is a jiva, then there is Ishwara.
Jiva is limited, Ishwara is omnipresent;
Jiva(small part of Ishwara) has a tarnished anthahkaran or mind(a small part of maya),
Ishwara is pristine and all-knowing sattvic maya.
When mind is removed from jiva and maya is removed from Ishwara, all that which remains is immortal, ever-conscious, omnipresent absolute Brahman.
श्लोक 63:
शंकराचार्य जी कहते हैं कि संसार विलक्षण है: असत्य, सीमित और दुःख से भरपूर।
जबकि ब्रह्म :सत्य, चैतन्य ,सदैव , आनंदमय , शाश्वत सर्वव्यापक ,पूर्ण अस्तित्व है।
सत्य और असत्य को दो विपरीत माना जाता है। परंतु शंकराचार्य जी कहते हैं ....यह दो अलग-अलग अधिकार क्षेत्र से नहीं है ।बल्कि केवल एक और एक ही ब्रह्मांड की संप्रभुता है । असत्य और सत्य भी
ब्रह्म में ही विद्यमान है।
संसार मिथ्या नहीं... भ्रम है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसका अस्तित्व नहीं है ।इसका अर्थ है .... जो उसे जैसा समझता है वो वैसा नहीं है ।ब्रह्म ....असत्य और भ्रमपूर्ण संसार का.... आधार है।
• पदार्थ
= अणुओं + परमाणु
> इन्हें आगे उपविभाजित किया जा सकता है
•उपपरमाणिक कण= इलेक्ट्रॉन+ न्यूट्रॉन +प्रोटॉन
इन्हें आगे उप विभाजित कर सकते हैं।
अतः, स्थूल पदार्थ से लेकर >अणुओं तक ,परमाणु से लेकर > उपपरमाणुओं तक
....विभाजन ....तब तक चलता रहता है..... जब तक शून्यता तक नहीं पहुंच जाते ।
जहां आगे शेष कुछ भी नहीं है। जब कणों का आगे विभाजन नहीं किया जा सकता ....एक अदृश्य इकाई बनी रहती है । यही उत्पत्ति का केंद्र है। यह एक तरह का खालीपन है......।
यह वह शून्यता है जिसमें अनंत की क्षमता है ।
इस तरह हर वस्तु शून्यता से... मात्र बिंदु से ....उत्पन्न हुई है ।
आगे ,यह सभी कण और उपपरमाणिक कण निरंतर गतिशील है। इन कणों से बना मानव शरीर -यद्यपि स्थिर प्रतीत होता है, फिर भी निरंतर गति/ परिवर्तन में है। इस तरह,मानव शरीर ,पेड़, जानवर, पहाड़ ,नदियां आदि सब स्थिर और गतिहीन लगते हैं। परंतु ,असल में लगातार बदल रहे हैं। जो बदलता है- उसे संसार कहते हैं।
संसार है तो सही पर उसका कोई अस्तित्व नहीं है।
यह है भी फिर भी नहीं है ।इस सांसारिक भ्रम को तब देखा जा सकता है जब वास्तव में सर्वत्र ब्रह्म हो। संसार है नहीं, पर दिखता है। ब्रह्म का अस्तित्व है पर दिखता नहीं । कोई इसे देख नहीं सकता। यह: निराकार, पारलौकिक ,जन्म रहित मृत्युहीन , असीम ब्रह्म /ईश्वर है।
मन से पहचाने जाने पर व्यक्ति ....जीव है.... ब्रह्म नहीं ।यदि जीव है तो ईश्वर भी है। जीव सीमित है.... ईश्वर सर्वव्यापी है।
जीव (ईश्वर का सूक्ष्म हिस्सा है) का मन (माया का छोटा हिस्सा) धुंधला है।और ईश्वर पुरातन, सर्वज्ञ और माया है।
जब मन को जीव से हटा देते हैं और माया को ईश्वर से हटा देते हैं तो जो शेष बचता है.... वह अमर ,सदैव ,चैतन्य सर्वव्यापी पूर्ण ब्रह्म है। -
श्लोक 62:
ब्रह्म हर वस्तु में... अंदर और बाहर व्यापक है ।यह अपनी चेतना के प्रकाश में पूरे विश्व को प्रकाशित करता है। जैसे गली में लगे बल्ब का इससे कोई सरोकार नहीं है कि उसके प्रकाश में कौन, कैसे और क्या प्रकाशित हो रहा है । बस वह केवल प्रकाश फैलता है ।ठीक उसी तरह 'मेरे' प्रकाश में भी सब प्रकाशित होता है ।मन /बुद्धि भी मेरी चेतना में कार्यरत है। मन बुद्धि के संयोग के बिना 'मेरी' चेतना का प्रकाश केवल 'मैं' को प्रकाशित ही करता है। प्रकाश हर चीज को पूर्णतया प्रकाशित करता है। इस प्रकाश में कुछ भी अच्छा बुरा नहीं होता। अच्छे - बुरे का लेबल मन - बुद्धि के दायरे में आता है। प्रकाशित का अर्थ है- जानना ।
•"मैं "बुद्धि को प्रकाशित करता है। •"मैं" बुद्धि के जानने को जानता है।
•"मैं " को चैतन्य कहा जाता है ।
इसलिए :
"मैं दृष्टा हूं" ।
"मैं साक्षी हूं "।
"मैं ब्रह्म हूं"।
जो इन तीन अवस्थाओं (शरीर, जीव, ब्रह्म) के अस्तित्व को नहीं जानता ....वह जीव है ।
जो जीव को नहीं जानता वह केवल शरीर है ।
अधिकांश धर्म में यह माना जाता है कि मृत्यु के बाद भी कुछ है जो जीवित रहता है। कुछ लोग कहते हैं ...प्राण चले गये ,कुछ कहते हैं... कि जीव चला गया, कुछ कहते हैं... कि आत्मा चली गई। कुछ बिरले ही है ... जो प्रबुद्ध गुरु की संगत में है। वही यह एहसास कर पाते हैं कि वह जीव नहीं है। बल्कि वास्तविक
आत्मा ही है ।
•मैं शरीर हूं
से होते हुए
•मैं जीव हूं
•मैं आत्मा हूं
और अंत में
•मैं ही सर्वव्यापी ब्रह्मन हू।
यह एक लम्बी यात्रा है ।
वह शक्ति जिसके द्वारा बुद्धि कार्यरत है और विवेकशील दृष्टिकोण अपनाती है.... वह स्वयं की शक्ति ही है ।
मेरा जानना बुद्धि के जानने से भिन्न है।
यह निष्पक्ष प्रकाश की तरह है ...जो हर को प्रकाशित करता है- एक साक्षी है।
आत्मा... शरीर, इंद्रियों ,मन बुद्धि -के विषय में सब जानती है।
जब आत्मा हर चीज़ की ज्ञाता होती है.... तब उसे साक्षी भाव में देखा जाता है।
परंतु जब आत्मा.... किसी भी प्रकाश के जानने में ...शामिल नहीं होती ...तो उसे आनंदमय , शाश्वत सर्वव्यापी , ब्रह्मन कहते हैं।
Verse 62
Brahman pervades every thing, inside and outside, illuminating the entire world, with the light of its consciousness.
When ‘my’ consciousness reaches the mind-intellect, they perform their respective functions. Without the association of mind-intellect, the light of ‘my’ consciousness illuminates ‘myself’.
The one who is not aware of the three states of being - body, jiva, Brahman, is just a jiva and the one who doesn’t know the jiva is just a body.
Most people believe that something lives on even after the death of the body. Some say prana continues, some say jiva continues. Only a few, who are in the company of an enlightened master realise that they are not the jiva either - they are the veritable Atman.
It is a long journey from, ‘I am the body’ to ‘ I am the jiva’ to ‘I am the Atman’ and finally ‘I am the all-pervasive Brahman.
My/Self’s knowing is different from the knowing of the intellect.
It is like the unbiased light, illuminating every thing - a detached witness.
The Self knows everything about the inert body, the inert senses, and the inert mind-intellect.
When the Self/I is the knower of everything, it gets labelled as ‘Witness’.
When Self/I not involved in any kind of knowing, then the Self/I is (ever-conscious, ever-blissful, eternal, all-pervading, absolute existence) the Brahman.
The inert body-mind-intellect, on coming in contact with the sentient Self - the intellect starts deciphering; mind starts thinking and senses begin to see hear, smell, taste and feel. They seem sentient but they aren’t.
Proximity with Self enables the feeling of ‘I know’ in the mind-intellect.
‘Self/Brahman/I’ am the substratum of prana too.
It is the mind-intellect that reacts to the impulses coming from the sense organs. The knowing of mind-intellect is only possible because of the consciousness of the Self. The proximity of the mind-intellect to the sentient Self, makes one feel when the mind is happy or upset - he/she is happy or upset.
The inert mind-intellect appears sentient because of its proximity to the Self.
Irrespective of ones qualification or position, if one does not have the knowledge of the Self, the individual is ignorant. -
Verse 59
A certain process of reflection and contemplation is required to perceive and understand the existence of Brahman. It is the one entity that pervades every thing. All the upadhis are able to function because they are permeated by Brahman.
Keno-Upanishad says: ‘ That which cannot be understood through the mind, but that which knows the mind - know that to be Brahman.
Boundaries are created by the mind and it is the mind that recognises the name of the body. Name and the form gives one a separate identity.
At the plane of the Self, there is no I and no you, just Shivoham - I am Shiva. Here Shiva doesn’t refer to the form of Mahadev with flowing tresses, serpents and deerskin. Shiva means the absolute reality, Brahman.
The world is a lie; it’s inhabitants are a lie - if they are not renounced, one has to be born again and again. ( could be born in one of 84 lakh species).
The one who discovers his false identifications and establishes in the real Self, becomes free from the bondage of being born again and again. The self-realised individual would see himself/herself separate from the body despite being in the body.
Self-realisation liberates from all the bondages.
Verse 60
Anything afar off oneself, is addressed as ‘that’ and one’s own body is addressed as ‘this body’. ‘This’ indicates closeness and ‘that’ indicates far-away. Brahman is neither close nor afar. The concept of distance is an object, it is in the dimension of space.
Brahman is transcendent to space and time, it is formless, attribute-less, birth-less and change-less. The word used in Sanskrit is: Tat, neither this nor that.
It means ‘As It Is’
Verse 61
Brahman is that which enables the luminosity of all luminous objects, but that which cannot be illumined by anything; that which makes possible to know every thing; that whose light enables the objects like sun to be self luminescent - that is Brahman.
Mind intellect functions only in the light of ‘my’ consciousness; ‘I’ know the state of the mind ( happy/ sad); ‘I’ know if the body is healthy or diseased - This ‘I’ is the pure Self/ Atman/Brahman. Self is known by Self.
One cannot know Brahman; one can only be Brahman. Realisation of this veritable truth face one from all attachments and bandages. On the path of bhakti only external form of Krishna is seen; as long, only external form is seen ignorance exists.
On the path of jnana, ‘I am Krishna’ the day one sees Krishna as his/her own Self, that is the dawn of jnana.
जैसे मक्खन दूध की हर बूंद में निहित है ... वैसे ही ब्रह्मन भी संसार के कण-कण में है । यह वह तत् है, जो सब में व्यापक है ...सब उपाधियां ब्रह्मन में निहित होने के कारण ही सक्षम हैं। जैसे खुली आंख से देखने पर मक्खन नजर नहीं आता, ठीक उसी तरह , ब्रह्मन के अस्तित्व को समझने और जानने के लिए चिंतन और मनन की आवश्यकता है ।यह एक निश्चित प्रक्रिया है ।
मक्खन रुपी ब्रह्मन समस्त सृष्टि में व्यापक है। जैसे
* शरीर की उत्पत्ति और विनाश में
*दिमाग की सोचने की क्षमता में
*बुद्धि के निर्णय लेने की क्षमता में
* पांच तत्वों का अस्तित्व में
*जीव का अस्तित्व में
*ईश्वर का अस्तित्व में
इस तरह, सब ब्रह्मन के कारण ही संभव है।
केनो उपनिषद के अनुसार ....
•जो बुद्धि द्वारा जाना नहीं जा सकता ,परंतु जो बुद्धि को जानता है -उसे ब्रह्मन समझो। •जो मन द्वारा नहीं जाना जा सकता वही ब्रह्मन है ।
•जो आंखों को देखता है परंतु आंखों द्वारा देखा नहीं जा सकता वही ब्रह्मन है।
जिस प्रकार मक्खन निकालने के लिए दूध का मंथन जरूरी है। उसी तरह झूठे "मैं" का भी मंथन जरूरी है ।जो हम नहीं हैं.... उसे नकारना ही एक तरह का मंथन हुआ.... जैसे
- शरीर नहीं ,मन नहीं, चित् नहीं, इंद्रियां नहीं ,बुद्धि नहीं, अहंकार नहीं।
इस तरह मंथन से अशुद्धियां पृथक हो गई और केवल शुद्ध मक्खन रूपी
श्लोक 60:
ब्रह्मन :
*ना ही सूक्ष्म है नहीं ही स्थूल
*ना ही छोटा है ना ही बड़ा *अपरिवर्तनशील *जन्महीन
*निर्गुण
*रंगहीन
*पंथहीन
और
*प्रकृति के गुणों से रहित
है।
यहां प्रश्न यह है कि:
- ब्रह्मन यह है?
या
-ब्रह्मन वो है ?
साधारणतया .... *"यह " का संबोधन निकटता का एहसास करवाता है..
*जबकि "वो" का संबोधन दूरी का एहसास देता है। इसीलिए अक्सर शरीर को हम "यह" कह कर संबोधित करते हैं ....जो निकटता दर्शाता है।
परंतु ,अगर विचार करें कि
*ब्रह्मन कहां है ?
*नजदीक है या दूर ?
परंतु , वास्तव में यह दोनों धारणाएं ही गलत हैं । क्योंकि दूरी और पास की अवधारणा अंतरिक्ष/ आकाश के आयाम में है।
जबकि ब्रह्मन आकाश और समय से कहीं उत्कृष्ट है ।यह:
निराकार ,गुण रहित, जन्म रहित, अपरिवर्तनशील - ब्रह्मन है।
अर्थात
*ब्रह्मन तत् है ।
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ना यह है ना वो ।
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बस जैसा है वैसा है।
यह वेदान्तिक ज्ञान है । इस ज्ञान को समझने के लिए कुशाग्र बुद्धि चाहिए। यदि यह ज्ञान हमें समझ ना आए, तो ज्ञान पर नहीं बल्कि अपनी बुद्धि पर संदेह करना चाहिए । इस मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रयास करना चाहिए।
श्लोक 61:
जो सब को प्रकाशित करता है.... (यहां तक कि सूर्य को भी ) पर जिसे प्रकाशित नहीं किया जा सकता। परंतु,वही सब के प्रकाशित होने का कारण है ...वह ब्रह्मन है।
सूर्य स्वयं प्रकाशमय होते हुए भी समय और स्थान में सीमित है और साथ -साथ जड़ भी है।
*जिसके कारण सबकुछ समझना और जानना संभव है।
* जिसका प्रकाश सूर्य आदि वस्तुओं को प्रकाशित होने में सक्षम बनाता है....
वही ब्रह्मन है ।
गुरु कृपा से अज्ञानता का नाश होते ही ....आंतरिक अंधकार भी समाप्त हो जाता है और बुद्धि प्रकाशित हो उठती है ।
इससे यह एहसास हो जाता है कि ....
*मैं स्वयं ही *प्रकाशमय , *जागरूक -ब्रह्मन हूं । -मन /बुद्धि मेरी चेतना में ही कार्यरत हैं ।
- मैं मन की स्थिति जानता हूं ...सुख/दुःख।
-मैं जानता हूं कि शरीर स्वस्थ है/ रोगी
-यह मैं कौन है?
|
यह
*शुद्ध *स्वयं *आत्मन- ब्रह्मन है।
प्रश्न यह है कि- "मैं" को कैसे जाना जाए ?
-स्वयं को स्वयं से ही जाना जा सकता है।
-इस "मैं" को जानने के लिए किसी और की आवश्यकता नहीं है।
-ब्रह्मन को जाना नहीं जा सकता।
- इसके लिए ब्रह्मन ही होना पड़ता है।
किसी भी चीज को समझने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है। जबकि ब्रह्मन को बुद्धि से नहीं जान सकते। क्योंकि वह बुद्धि से कहीं अधिक उत्कृष्ट है।
इस सत्य का बोध सर्वश्रेष्ठ है ।यही अहसास इंसान को सब आक्तियों से मुक्त कर देता है ।
भक्ति मार्ग पर:
...श्री कृष्ण के केवल बाहरी स्वरूप की पूजा होती है। जब तक बाहरी रूप दिखाई देगा ... तब तक अज्ञानता का अंश बाकी है। ज्ञान मार्ग पर :जब व्यक्ति...
"मैं कृष्ण हूं" स्वयं को उस रूप में देखता है .. तो वह असल में ज्ञानी हो जाता है।
एक प्रबुद्ध ज्ञानी के लिए :
*आत्मा ही विष्णु है *आत्मा ही शिव है *आत्मा ही कृष्ण है *वह आत्मा को सब में
और
*हर जगह देखता है।
जब व्यक्ति इस उत्तम अवस्था को पा लेता है ..तब वह सब बंधनऔर दुःखों से मुक्त हो जाता है।
भले ही हम यह सब समझने में सक्षम हो या ना हो। पर फिर भी हम ब्रह्मन ही है। -
श्लोक 58
ईश्वर का स्वरूप/सार....
* सम्पूर्ण
* अखण्ड *आनन्ददायक है। इसकी तुलना में सांसारिक सुख नगण्य हैं।
-न तो कोई राजा,
- न ही राजनीतिक शक्ति वाला व्यक्ति, -न ही कोई अमीर आदमी
-और यहां तक कि न ही कोई देवता भी अनंत सुखी हो सकते हैं।
खुशियाँ तो पलक झपकने तक ही हैं।
न तो सृष्टिकर्ता ब्रह्मा का सुख
और
न ही विष्णु का सुख शाश्वत है।
जब महादेव संपूर्ण सृष्टि के देवताओं का विनाश कर देते हैं, तब इंद्र, ब्रह्मा और विष्णु भी सर्वनाश से नहीं बचते। प्रलय के समय महादेव भी अपने सूक्ष्मतम रूप में लौट आते हैं ... जब तक कि नई सृष्टि न सृजन ना हो जाए।और यह चक्र अनंत काल तक चलता रहेगा।
जबकि एक प्रबुद्ध व्यक्ति की खुशी असीम होती है .... यहां तक कि दिव्य प्राणियों/देवताओं/ से भी कहीं गुना अधिक।
प्रत्येक ब्रह्माण्ड के अपने-अपने ब्रह्मा, विष्णु और महादेव हैं। और ऐसे अरबों ब्रह्मांड हैं।
ऊर्जा के स्तर पर, रचनात्मक शक्ति ब्रह्मा हैं, पोषण करने वाली शक्ति विष्णु हैं और विनाशकारी शक्ति महादेव हैं। और जिसमें ये अरबों शक्तियाँ निहित हैं, वह एकमात्र ब्रह्म है।
ऐसे ब्रह्म का आनंद/सुख-
*संपूर्ण
*अनंत
* शाश्वत
* अविभाज्य
और
अद्वितीय है।
Verse 58
The nature/ essence of God is whole, unbroken bliss. In comparison the worldly pleasures are insignificant.
Neither a monarch nor or person with political power nor a rich man nor devatas can truly be happy. Happiness eludes everyone.
Neither Brahma the creator’s happiness nor Vishnu’s happiness is eternal. When Mahadev annihilates the entire creation devatas, Indra, Brahma and Vishnu cannot escape the apocalypse. At the time of apocalypse even Mahadev returns to his subtlest form - until the new creation happens and this cycle continues.
Whereas the happiness of an enlightened being is greater than that of everyone - even than that of celestial beings/ devatas/ Gods.
Every universe has its own Brahma, Vishnu and Mahadev. And there are billions of such universes. At the plane of energy, the creative force is Brahma, the nurturing force is Vishnu and the destructive force is Mahadev. And that in which these billions of forces lie is the singular Brahman .
The bliss of such Brahman is whole, endless, eternal, indivisible, and unparalleled. -
Verse 57
The process of negating that which is not true, will lead one to the Truth. It should be done through logic and reasoning. Shankaracharya says that which is indivisible,ever blissful, singular, formless and that which is the indestructible substratum - know that to be Brahman.
Brahman is not a person with three heads ( Brahma) neither is he a person holding conch and lotus( Vishnu) nor is he a person wearing dear skin ( Shankar).
Despite knowing what Brahman is, our scriptures described ways of worshipping - Shiva, Rama, Durga etc.
Tenets were given for the beginners - to refrain from doing bad actions, doing virtuous deeds, mantra chanting, fasting, service, charity, pilgrimage and reading texts of puranas.
The intention was to lead people from - form to formless.
Until one reaches the state of subtle enquiry - tangible methods has to be given, to engage one on the path of spiritual journey.
Asanas and pranayama are done to quieten the mind.
This in turn allows the disciple to engage in mantra chanting. Gradually as the devotion starts increasing, dispassion becomes stronger, ability to understand starts improving and and then comes a point when the master imparts the teachings on Brahman to his disciple.
The path of Bhakti, the practice of yoga and the path of Vedanta each holds its importance. One should assess his/her leaning and chalk out the path in sync with it.
श्लोक 57
जो सत्य नहीं है ...उसे नकारने की प्रक्रिया ही व्यक्ति को सत्य की ओर ले जाएगी । इसे तर्क एवं तर्क /नेती -नेती से करना चाहिए। शंकराचार्य कहते हैं कि जो:
•अविभाज्य
•सदैव
•आनंदमय
•अद्वितीय
•निराकार
और
• अविनाशी है
- उसे ही ब्रह्म मानो।
परंतु ,यह तीन सिर वाले व्यक्ति (ब्रह्मा) नहीं हैं , ना ही वह शंख और कमल धारण करने वाले (विष्णु) है, और न ही वह प्रिय त्वचा पहनने वाले (शंकर) हैं।
यह जानने के बावजूद कि ब्रह्म क्या है.....हमारे ग्रंथों में शिव, राम, दुर्गा आदि की पूजा की विधियों का वर्णन किया गया है।
साधना के इस मार्ग पर शुरुआती साधकों के लिए कुछ सिद्धांत दिए गए थे
- बुरे कर्मों से बचना, पुण्य कर्म करना, मंत्र जप, व्रत, सेवा, दान, तीर्थयात्रा और पुराणों के पाठ पढ़ना।
मकसद यह था ..कि लोगों को आकार से निराकार की ओर प्रोत्साहित करना ।
जब तक कोई साधक साधना की परम स्थिति तक नहीं पहुंचता -तब तक उसे आध्यात्मिक यात्रा के पथ पर संलग्न रहने के लिए ठोस विधियों का पालन करना चाहिए।
मन को शांत करने के लिए आसन और प्राणायाम किए जाते हैं।
धीरे-धीरे जैसे-जैसे *भक्ति बढ़ने लगती है
* वैराग्य मजबूत होने लगता है, *समझने की क्षमता बेहतर होने लगती है - तब, फिर एक समय ऐसा आता है.... जब गुरु अपने शिष्य को ब्रह्म का ज्ञान देते हैं।
इस तरह...भक्ति का मार्ग, योग का अभ्यास और वेदांत का मार्ग... प्रत्येक का अपना महत्व है। व्यक्ति को अपने झुकाव का आकलन करते हुए....उसके अनुरूप रास्ता चुनना चाहिए। -
श्लोक 56:
ब्रह्मन हर स्थिति में ब्रह्मन ही है। शंकराचार्य जी कहते हैं कि इस ब्रह्मन को जानों - जो
•चैतन्य
•आनंदमय •अस्तित्वात्मक •असीम
• अद्वैत और •एकमात्र सत्य है ।
जबकि संसार अस्तित्वहीन है।
सारे योगीगण -चाहे वह कहीं भी रहते हो या किसी भी धर्म, जाति या रंग के हो- सबका एक ही सत्य है और वही परम सत्य है ।
ज्ञान आने के पश्चात - अब, आगे पाने के लिए शेष कुछ नहीं रह जाता । संसार में जो कुछ नज़र आता है - वह योगी के लिए केवल भ्रम है।
ज्ञान केवल हमें ज्ञान ही प्रदान नहीं करता ... बल्कि हमारे सारे भ्रम और अज्ञान का नाश भी करता है ।
इस अज्ञानता के हटते ही ज्ञान स्वयं ही स्पष्ट हो जाता है। भ्रम के हटते ही हमारा अस्तित्व समक्ष होता है । क्षेत्र को जाने बिना क्षेत्रज्ञ- नहीं जाना जा सकता ।राम को जाने बिना ....राम की पूजा करना व्यर्थ है।
तुलसीदास जी कहते हैं कि जब जीवा को अपने (जीव ) तत्व का ज्ञान हो जाता है ... तब ईश्वर स्वयं ही मिल जाता है ।परंतु जब मन ईश्वर को ढूंढने चाहते हैं...तब मन संसार में उलझ के रह जाता है। क्योंकि मन केवल संसार को ही जानता है ।वह यह नहीं जानता कि ईश्वर कौन और कहां है। कोई
•राम को /कृष्ण को/देवी को या शिवा को मानते हैं । कोई निराकार को भी मानते हैं ।उनके लिए भगवान आकाश में रहते हैं। परंतु सच तो यह है आकाश पंचतत्व का ही हिस्सा है । यह सब पंचभूत जड़ मात्र है ।
बुध धर्म के अनुसार भगवान कुछ भी नहीं है । वह शून्यता पर विश्वास रखते हैं। इच्छाएं ही हमारे बार-बार जन्म लेने का कारण है । इसलिए,जो इच्छा त्याग कर, आठ गुना पथ पर दृढ़ता से चलता है... उसे ही निर्वाण की प्राप्ति होती है।
जैन मत के अनुसार भगवान जैसा कुछ नहीं है ।सब आत्मा- अनआत्मा /जीव- अजीव का ही खेल है ।आत्मा शरीर में रहती है.... सारी अशुद्धियां शरीर/मन/ बुद्धि में घुस चुकी है। इसलिए- •हिंसा •चोरी •जमाखोरी जैसे विचारों को त्यागकर ..... और
तमाम अशुद्धियों को कठोर तपस्या में जलाकर ......
ही शुद्ध हुआ जा सकता है। इस तरह पूर्णता शुद्ध व्यक्ति को तीर्थकर या महावीर कहते हैं।
यह मत सांख्य मत से कुछ-कुछ मिलता है। जिस का मानना है कि यह सारा खेल
*प्रकृति (माया)
*पुरूष (ब्रह्म)
*जीव
का है…।
यदि कोई साधक अज्ञानता से निकलने में इच्छुक है ... तो उसे कुछ प्रश्नों पर गहराई से सोचना होगा:
*मैं कौन हूं?
*आत्मा कौन है?
*भगवान कौन है?
*जीवा कौन है?
*ईश्वर कौन है?
ज्ञानपूर्ण बातों पर मनन किए बिना अज्ञानता नहीं मिट सकती।
हम मात्र विश्वास के लिए धर्म का चुनाव नहीं करते। बल्कि ,यह वो सिद्धान्त हैं ...जो वेद और उपनिषद जैसे ग्रन्थों द्वारा प्रमाणित हैं। इसके अतिरिक्त, यह ऋषियों-मुनियों का सीधा अनुभव
है । यही नहीं ,यह
प्रयोगों द्वारा सिद्ध भी है।
यह भी ज़ाहिर सी बात है कि ऋषिगण गलत का समर्थन कभी नहीं करेंगे।
Verse 56
Brahman abides in all the directions. Shankaracharya says, realise this Brahman - which is ever conscious, ever blissful, absolute existence ; It is infinite and eternal. Brahman is non-dual, there is no other reality.
Irrespective of form, race, caste, geographical location or the era they were born in - all enlightened beings, speak of the one Truth, the absolute singular reality.
Once attained, nothing else remains to be attained. To an enlightened being the world that is visible is no more than an illusion.
Knowledge not only gives but it also takes away the illusions and delusions. Only when the untruth is discarded, the Truth is attained. Without discarding the illusory, one cannot know the substratum. Without knowing the Ksetra. (field-of- knowable) one cannot know the ksetragya.
It is futile to have devotion towards Shri Ram without knowing his true essence. -
Verse 55
Having known Brahman, the yogi is no longer born again in the labyrinth of this world.
Realising the Brahman and abiding in the apraoksha knowing with unwavering conviction - such that even when woken up from sleep and asked, who one is - he/she replies ‘ I am Brahman’;
In sleep, in sensory indulgence, in sexual intimacy, or in anger - if one doesn’t forget that one is Brahman, it is the indicator of unswerving conviction in Brahman.
Having known this, nothing remains to be known.
Enlightenment and sorrow do not co-exist.
The indicators of ignorance are - having expectations, seeking support from others, complaining and whining.
श्लोक 55:
जब योगी को अपने तत्व .... ब्रह्मन ... का ज्ञान हो जाता है ... तब वह इस संसार रूपी भूल भुलैया में फिर जन्म नहीं लेता ।
ब्रह्मन के बोध के साथ-साथ .... अपरोक्ष ज्ञान में रहते हुए .... दृढ़ता की उस चरम सीमा को छूना है - जहां यदि सोकर उठने पर भी कोई पूछे कि तुम कौन हो- तब भी स्वयं को ब्रह्म ही बताएं।
सोते हुए / संवेदी भोग / गुस्से में या वासना लिप्त होने पर भी ... यदि हम अपने ब्रह्मत्व को ना भूलें .... तो यह सिद्ध हो जाता है कि अब हम ब्रह्मत्व में ही बसते हैं।
इस सर्वोत्तम ज्ञान होने के पश्चात .... अब और जानने को शेष नहीं रहता।
अज्ञानता के कारण हम शरीर, मन, बुद्धि से जुड़े हैं। यही हमारे सारे दुखों का कारण भी है।
ज्ञान और दुःख दोनों साथ-साथ नहीं चल सकते।
अज्ञानता के कारण हम
*इच्छा ग्रस्त,
*दूसरों पर आश्रित, *एक आलोचक बन कर रह जाते हैं।
पुराने जमाने में गुरु शिष्य का चुनाव बड़े ही कठोर मापदंड के आधार पर करते थे।
हमने नश्वर होते हुए... चेहरे पर बहुत से मुखोटे लगाए हुए हैं। हर चेहरे के पीछे हजारों चेहरे छुपे हैं ।कभी कभी तो ऐसा लगता है- मानो मुखौटे के पीछे वाला चेहरा गुस्से से मारने को तैयार खड़ा है।
गुस्सा अज्ञानता का प्रतीक है। जबकि ज्ञानी पुरुष गुस्से का प्रयोग बहुत ही चतुराई से करता है। ज्ञानी वह शल्यकार है , जो भलीभांति जानता है गुस्से रूपी छूरी का उपयोग कब और कहां करना है ।
ज्ञानी हर अवस्था में एक समान रहता है। यदि कोई
*निडर
*अशोक
*अपेक्षा रहित है -तो निसंदेह,वह ज्ञान के सागर में विलीन हो चुका है। -
श्लोक 54:
शंकराचार्य जी कहते हैं ... कोई भी उपलब्धि स्वयं की प्राप्ति(पाने )से बढ़ कर नहीं है ।स्वयं को जान पाना सर्वश्रेष्ठ उपलब्धि है। सब संसारिक सुख एक बुलबुले की तरह क्षण भर के हैं। आत्मज्ञान ही सर्वोत्तम ज्ञान है । इसके समक्ष सब कुछ तुच्छ हो जाता है।
ब्रह्ममन > उत्तम बुद्धि, अति शांत मन और परम ज्ञान की स्थिति है । श्री कृष्ण जी कहते हैं: •क्षेत्र -वह स्थान जहां "मैं नहीं हूं"। अर्थात ..शरीर/ मन/ बुद्धि और माया पूर्ण संसार ...( जिसे जाना जा सके) ..वह सब क्षेत्र है।वह "मैं नहीं हूं।"
और
,•क्षेत्रज्ञ- जो "मैं हूं"।यह "मैं " आत्मा शाश्वत और सर्वव्यापी है ।"मैं" क्षेत्र के बदलते रूप का भी साक्षी हूं।
प्राचीन काल में मंदिर.... पूजा /अर्चना के स्थल ना होकर केवल मनन और ज्ञानियों के प्रवचन का स्थल हुआ करते थे।
लिंग एक प्रतीकात्मक चिन्ह है ...जो अनादिकाल को दर्शाता है। जो यह बताता है कि भगवान ना ही जन्म है और ना ही मृत्यु है। वह निराकार और अनंत है।
क्योंकि पुरातन काल में वातावरण में ही इतनी शुद्धता थी कि बुद्धि भी अति शुद्ध हुआ करती थी। यही कारण था कि एक प्रतीकात्मक चिन्ह से ही सब कुछ स्पष्ट हो जाता था।
वह जो हर जगह है और जो हर में बसता है -वह ब्रहमन है।
इस तरह आत्म ज्ञान ही ब्रह्म ज्ञान है। "शिव"- "ब्रह्म"- "आत्मन"-"मैं" .....सब एक ही है।
Verse 54
Shankaracharya says that no attainment is greater than the attainment of Self, no achievement is greater than this achievement. Big or small the worldly pleasures are no more than a bubble. On the contrary the bliss of self- realisation is unparalleled and no knowledge is higher than this knowledge.
The minuscule intellect holding immeasurable Brahman :- When the intellect becomes totally refined; free of all afflictions; and becomes completely still - it is said to be attainment of already attained Brahman ( it is moving from not-knowing the Self to knowing the Self).
In Gita, Sri Krishna explains the difference between the words:
ksetra is all that which is not ‘I’, ie. the body-mind-intellect and the entire elemental world,
the field-of-the-knowable.
ksetragya is ‘I’ am the Self, that which is eternal and witnesses the ever changing ksetra.
In ancient times, temples were not built as places of worship, rather it was a place for quite contemplation or for listening to the discourses given by enlightened masters.
Linga was just a symbol. God has no form. When the surface of the Linga is traced, there is no starting point or an endpoint; indicating God is birthless and deathless.
In earlier times people had evolved pure intellects, jnana had the upper hold. Abstract symbolisation was enough to explain things. That which is everywhere and that in which all exist - is Brahman. The highest knowledge is the knowledge of Brahman. Shiva means Brahman, Brahman means ‘I’, ‘I’ means the Self. -
Verse 53 ( continuation)
Different types of knowing:
Direct knowing : that which occurs through cognitive senses and doesn’t require external gratification because it can be actually experienced.
Indirect knowing : where there is no first hand experience, but one must have heard about it, or read about it.e.g. The notion of heaven and hell. This knowing needs some form of validation. Scriptural doctrine or endorsement from saints - about the entities called atman, Brahman, God. This knowledge is not in one’s own experiential inference, hence its veracity is doubted.
The third kind of knowing~ : the knowing of ‘I’ am. This knowing is neither direct nor indirect. Body is visible, but that which exists in the body - is not perceived directly.
I know I am, for ‘I’ am sentient - no validation is required to know that one actually exists.
The body doesn’t know Me, the mind doesn’t know Me, but ‘I’ know the body, ‘I’ know the mind for ‘I’ am ever- conscious. This knowing of ‘I am’ which is neither direct or indirect is called ‘ aparoksha ’ knowing.
Through uninterrupted contemplation, and resolute conviction, I know that I am the ever- conscious ever-blissful, absolute truth - this knowing is called ‘ sakshat-aparoksha’.
‘I am Brahman - even if the intellect knows this, or it doesn’t. ‘I’ am the sun that always exists - the day the mind knows this, it will be freed from all attachments, all bondages and all sufferings. When the light of jnana enters the mind- intellect, all the darkness of ignorance gets dispelled and the mind abides in eternal repose in the Self.
The self is never lost hence no question of finding it. It was not known and then one comes to know it.
The body- mind- intellect, senses and external objects etc., are untrue. But the foundation of this untruth is the one truth - the Self.
That which is formless, abides in the abode of truth.
Just as fragrance resides in a flower, so does the Self resides in us.
जानकारी विभिन्न प्रकार की होती हैं :
* प्रत्यक्ष जानकारी: इस प्रकार की जानकारी इंद्रियों के द्वारा होती है और इनका अनुभव मनुष्य स्वयं करता है। इसलिए इसकी पुष्टि की आवश्यकता नहीं रहती।
*अप्रत्यक्ष जानकारी :यह जानकारी सुनने या पढ़ने द्वारा मिलती है। इसके लिए प्रमाण की आवश्यकता रहती है। इस पर संदेह करना भी लाजमी है।
* अपरोक्ष जानकारी:
यह जानकारी ना तो प्रत्यक्ष ना ही अप्रत्यक्ष है।
जैसे शरीर तो नजर आता है ।परंतु शरीर के अंदर क्या है उसको देखना संभव नहीं है।
इस तरह "मैं हूं.".. मुझे पता है ।इसके लिए कोई प्रमाण की आवश्यकता नहीं है।
परंतु शरीर/मन /बुद्धि मुझे नहीं जानती । पर मैं शरीर /मन/ बुद्धि को जानता हूं।
यही अपरोक्ष ज्ञान है।
*मनन और दृढ़ आस्था से यह स्पष्ट होता है कि "मैं" शाश्वत और सर्वव्यापक हूं। यही एक मात्र सत्य भी है। इसे साक्षात अपरोक्ष ज्ञान कहते हैं।
"मैं ब्रह्म हूं "। यही एकमात्र सत्य है। बुद्धि माने या ना माने। मैं वह सूर्य हूं जो हमेशा से ही है। इस सत्य को जिस दिन मन मान लेता है... वह बंधन मुक्त हो जाता है । जब यह ज्ञान मन बुद्धि समझ जाती है ... तब अज्ञान हट जाता है। मन आत्मा के साथ एकासार हो जाता है। वह आत्मा ही हो जाता है। यही उसका असली स्वरूप है।जो अज्ञानता के कारण धुंधला सा था जो दिखाई नहीं पड़ रहा था । ज्ञान से स्पष्ट हो जाता है।
मन/ बुद्धि/ शरीर/ इंद्रियां और बाहर की सब वस्तुएं भ्रम है।
आत्मन ही सब का अधार और एकमात्र सत्य है। यह निराकार है। जैसे खुशबू फूलों में रहती है.... ठीक उसी तरह आत्मा भी हमारे अंदर ही है। -
श्लोक 53:
मृत्यु के समय
* सारी उपाधियां अपनी अपनी ब्रह्मांडीय शक्तियों में समा जाती हैं।
*शरीर पंचधातु में विलीन हो जाता है ।
* पंचधातु ब्रह्मांडीय ऊर्जा में समा जाते हैं
*मन माया में समा जाता है।
*बुद्धि ब्रह्मांडीय चेतना में समा जाती है ।
* व्यक्तिगत प्राण ब्रह्मांडीय ऊर्जा में समा जाते हैं।!
केवल आत्मा ही अपने वास्तविक रूप में रह जाती है।
केवल योगी ही ऐसा है जो केवल स्वयं में ही विलीन होता है। क्योंकि विच्छेदन के बाद आगे विभाजन संभव नहीं है। और योगी पूरी तरह केवल आत्मन ही है। ठीक वैसे ही जैसे घड़ा टूटने पर केवल मिट्टी ही हो जाता है।
सिद्ध पुरुष ना जीते जी और ना मर कर उपाधियों से बंधे रहते हैं।
आम आदमी तो इच्छाएं से बांधा हुआ है। जो मरणोपरांत भी नहीं छूटती । यही कारण है कि जन्म मरण का चक्कर चलता ही रहता है।
अवचेतन मन/चित्त सब जन्मों की स्मृतियों का लेखा-जोखा समेटे हुए हैं। इन्हें मिटाया नहीं जा सकता । यही बेलगाम इच्छाएं जन्म मरण के चक्रव्यू का कारण हैं।
यही इच्छाएं हमारे अज्ञान का कारण है। जो अंतहीन हैं। इसीलिए इच्छाएं त्यागने में ही समझदारी है। यह सब आत्म ज्ञान के द्वारा ही संभव है। आत्म ज्ञान के द्वारा ही हम बंधन मुक्ति जैसी सर्वोत्तम स्थिति पा सकते हैं। फलस्वरूप,जन्म मरण से निकल सकते हैं।
योगी अपना अगला जन्म लोगों के प्रति सहानुभूति में लेता है । ताकि वह उनका उद्धार कर सके। जबकि वह स्वयं तो पुर्व जन्म में भी और अब इस जन्म में भी इच्छा मुक्त ही है।
श्लोक 53:
मृत्यु के समय
* सारी उपाधियां अपनी अपनी ब्रह्मांडीय शक्तियों में समा जाती हैं।
*शरीर पंचधातु में विलीन हो जाता है ।
* पंचधातु ब्रह्मांडीय ऊर्जा में समा जाते हैं
*मन माया में समा जाता है।
*बुद्धि ब्रह्मांडीय चेतना में समा जाती है ।
* व्यक्तिगत प्राण ब्रह्मांडीय ऊर्जा में समा जाते हैं।!
केवल आत्मा ही अपने वास्तविक रूप में रह जाती है।
केवल योगी ही ऐसा है जो केवल स्वयं में ही विलीन होता है। क्योंकि विच्छेदन के बाद आगे विभाजन संभव नहीं है। और योगी पूरी तरह केवल आत्मन ही है। ठीक वैसे ही जैसे घड़ा टूटने पर केवल मिट्टी ही हो जाता है।
सिद्ध पुरुष ना जीते जी और ना मर कर उपाधियों से बंधे रहते हैं।
आम आदमी तो इच्छाएं से बांधा हुआ है। जो मरणोपरांत भी नहीं छूटती । यही कारण है कि जन्म मरण का चक्कर चलता ही रहता है।
अवचेतन मन/चित्त सब जन्मों की स्मृतियों का लेखा-जोखा समेटे हुए हैं। इन्हें मिटाया नहीं जा सकता । यही बेलगाम इच्छाएं जन्म मरण के चक्रव्यू का कारण हैं।
यही इच्छाएं हमारे अज्ञान का कारण है। जो अंतहीन हैं। इसीलिए इच्छाएं त्यागने में ही समझदारी है। यह सब आत्म ज्ञान के द्वारा ही संभव है। आत्म ज्ञान के द्वारा ही हम बंधन मुक्ति जैसी सर्वोत्तम स्थिति पा सकते हैं। फलस्वरूप,जन्म मरण से निकल सकते हैं।
योगी अपना अगला जन्म लोगों के प्रति सहानुभूति में लेता है । ताकि वह उनका उद्धार कर सके। जबकि वह स्वयं तो पुर्व जन्म में भी और अब इस जन्म में भी इच्छा मुक्त ही है। -
Verse 52
The Self lives with upadhis and each upadhi has its own attributes.
Annamaya kosha, pranayama kosha, manomaya kosha, vigyanamaya kosha and anandmaya kosha -all five sheaths have their own qualities.
Vata, pitta and kapha are the three doshas affecting the functioning of the gross body; any imbalance in the doshas causes all sorts of diseases.
The mind and intellect have their own sets of attributes and afflictions.
Just as, despite every thing occurring in space; space itself remains untouched - likewise, ‘I’ the real Self lives with all these upadhis but ‘I’ remains untouched and unattached.
Shankaracharya compares the enlightened yogi to a fool, to an idiot. When the whole world is in pursuit of materialism, a yogi is contented and desires - nothing.
An enlightened, being abides in the bliss of his own Self; totally detached from everything and every being. He is detached from his own knowledge too. He doesn’t indulge in silly exhibitionism.
Wind blows everywhere without restraint, but at the same time remains untouched, unattached.
Although, ‘I’ am associated with upadhis of body-mind-intellect, ‘I’ remain detached, 'I' remain untouched, ‘I’ remain unaffected.
It is the light of ‘I’ that enables the functioning of mind-intellect; but ‘I’ am neither the mind nor the intellect
‘I’ am as wind is, ‘I’ am as space is .
The wise ones are - as free as space, as free as wind; only the ignoramuses get stuck in attachments.
शलोक 52:
आत्मन उपाधियों को ओढ़े हुए है और हर उपाधि की अपनी कुछ विशेषताएं हैं।
*पंचकोश(अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश विज्ञान मयकोश और आनंदमय कोश) की अपनी विशेषताएं हैं।
*इसी तरह तीन दोष (वात,पित्त और कफ ) शरीर की कार्य पद्धति में सहायक है और इनमें असंतुलन रोग उत्पन्न करता है।
*इसी तरह मन बुद्धि भी अपनी विशेषताएं लिए हुए हैं।
जिस प्रकार अकाश में सब कुछ घटित होते हुए भी अकाश सबसे अछूता है। ठीक इसी तरह आत्मन भी इन सब उपाधियों के साथ होते हुए भी अलग है।
शंकराचार्य जी एक सर्वोत्तम योगी की तुलना एक मूर्ख से करते हुए कहते हैं -कि जहां सारा संसार माया में लिप्त है ,वही योगी में कोई भी लालसा नहीं है। वह स्वयं में पूर्णता संतुष्ट है। वह माया से ऊपर उठ चुका है। यहां तक कि उसे अपने ज्ञान पर भी अभिमान नहीं है ।
जैसे हवा हर दिशा में बिना रुकावट से लहराती है और फिर भी कहीं नहीं ठहरती। उसी तरह आत्मन सब उपाधियों के साथ रहते हुए भी उनसे अलग है । उपाधियों के होने या ना होने से आत्मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
आत्मन के प्रकाश में मन बुद्धि कार्यरत है पर "मैं" ना ही मन हूं ना ही बुद्धि। "मैं" हवा की तरह आजाद हूं और आकाश की तरह असीम।
यही वजह है कि ज्ञानी लोग भी आकाश की तरह अपार और हवा की तरह स्वतंत्र हैं । केवल मूर्ख ही बंधन ग्रस्त है। -
Verse 52
The Self lives with upadhis and each upadhi has its own attributes.
Annamaya kosha, pranayama kosha, manomaya kosha, vigyanamaya kosha and anandmaya kosha -all five sheaths have their own qualities.
Vata, pitta and kapha are the three doshas affecting the functioning of the gross body; any imbalance in the doshas causes all sorts of diseases.
The mind and intellect have their own sets of attributes and afflictions.
Just as, despite every thing occurring in space; space itself remains untouched - likewise, ‘I’ the real Self lives with all these upadhis but ‘I’ remains untouched and unattached.
Shankaracharya compares the enlightened yogi to a fool, to an idiot. When the whole world is in pursuit of materialism, a yogi is contented and desires - nothing.
An enlightened, being abides in the bliss of his own Self; totally detached from everything and every being. He is detached from his own knowledge too. He doesn’t indulge in silly exhibitionism.
Wind blows everywhere without restraint, but at the same time remains untouched, unattached.
Although, ‘I’ am associated with upadhis of body-mind-intellect, ‘I’ remain detached, 'I' remain untouched, ‘I’ remain unaffected.
It is the light of ‘I’ that enables the functioning of mind-intellect; but ‘I’ am neither the mind nor the intellect
‘I’ am as wind is, ‘I’ am as space is .
The wise ones are - as free as space, as free as wind; only the ignoramuses get stuck in attachments.
शलोक 52:
आत्मन उपाधियों को ओढ़े हुए है और हर उपाधि की अपनी कुछ विशेषताएं हैं।
*पंचकोश(अन्नमयकोश, प्राणमयकोश, मनोमयकोश विज्ञान मयकोश और आनंदमय कोश) की अपनी विशेषताएं हैं।
*इसी तरह तीन दोष (वात,पित्त और कफ ) शरीर की कार्य पद्धति में सहायक है और इनमें असंतुलन रोग उत्पन्न करता है।
*इसी तरह मन बुद्धि भी अपनी विशेषताएं लिए हुए हैं।
जिस प्रकार अकाश में सब कुछ घटित होते हुए भी अकाश सबसे अछूता है। ठीक इसी तरह आत्मन भी इन सब उपाधियों के साथ होते हुए भी अलग है।
शंकराचार्य जी एक सर्वोत्तम योगी की तुलना एक मूर्ख से करते हुए कहते हैं -कि जहां सारा संसार माया में लिप्त है ,वही योगी में कोई भी लालसा नहीं है। वह स्वयं में पूर्णता संतुष्ट है। वह माया से ऊपर उठ चुका है। यहां तक कि उसे अपने ज्ञान पर भी अभिमान नहीं है ।
जैसे हवा हर दिशा में बिना रुकावट से लहराती है और फिर भी कहीं नहीं ठहरती। उसी तरह आत्मन सब उपाधियों के साथ रहते हुए भी उनसे अलग है । उपाधियों के होने या ना होने से आत्मन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता ।
आत्मन के प्रकाश में मन बुद्धि कार्यरत है पर "मैं" ना ही मन हूं ना ही बुद्धि। "मैं" हवा की तरह आजाद हूं और आकाश की तरह असीम।
यही वजह है कि ज्ञानी लोग भी आकाश की तरह अपार और हवा की तरह स्वतंत्र हैं । केवल मूर्ख ही बंधन ग्रस्त है। -
Verse 51
Shankaracharya asks, to light the lamp of Jnana inside the earthen pitcher of this body - that would glow in the incandescent light of the highest knowledge. But the light would not be visible to the naked eyes. There are no external parameters that would determine if one is enlightened or not.
Vedanta states that we mortals are same as Krishna and Rama. There is difference only at the level of Atma; level of awakening. The scripture Yoga-Vashishtha is devoted to Rama’s quest of jnana.
Knowledge of Atman is the same as knowledge of ‘I’, which is same as the knowledge of God(param atman). It is one and the same entity.
The light of knowledge illuminates the pitcher from inside; and at this plane of being, there is no difference between enlightened beings; they all are one.
By renouncing all the attachments to fleeting pleasures of the external world, and by not remaining enslaved to the senses and the material pursuits of the mind, one can remain established in the bliss of pure Self.
श्लोक 51:
शंकराचार्य जी कहते हैं कि शरीर रूपी घड़े के अंदर ज्ञान के दीपक को जलाओ। फल स्वरूप स्वयं में तृप्त हो जाओगे। और परमानंद में झूम उठोगे।
ऊपरी सतह पर - "कौन आत्म ज्ञानी है?" का निर्णय कर पाना कठिन है । इसके लिए कोई मापदंड भी नहीं है।
वेदांत के अनुसार - आम इंसान भी राम और कृष्ण की तरह ही है । फर्क केवल आत्मा के स्तर पर ही है। हम अज्ञान से धंसे हुए वो राम और कृष्ण है। जो अपनी अज्ञानता से भी अनभिज्ञ है।
योग वशिष्ठ ऐसा ही एक ग्रंथ है जिसमें राम की आध्यात्मिक जिज्ञासा का वर्णन है।
आतम ज्ञान /अपने बारे में ज्ञान/ परमात्मा यह सब एक ही है।
ज्ञान का दीपक शरीर रूपी घड़े को अंदर से प्रकाशित करता है। इस ज्ञान के स्तर पर सब ज्ञानी एक समान है।
बाहर के सुखों में आसक्ति भरी पड़ी है। इनसे निवृत्त होकर ही आत्म सुख का आनंद लिया जा सकता है। -
सम्बन्ध तथा राग-द्वेष वह अज्ञान रूपी दानव है... जो हमारे जंगल (या भवसागर ) रूपी मन में रहते हैं।
अज्ञानता के कारण हम बहुत डरे हुए और तरह-तरह की शंकाओं से घिरे हैं। और जब कभी हमारा सामना ऐसे किसी डर से होता है... तब हम अपना नियंत्रण खो देते हैं।
यह सोचने वाली बात है .... यह डर आता कहां से है ?
निसंदेह यह हमारे मन की ही उपज है। यह समझ पाना तो आसान है कि डर एक तरह का असुर है ।
पर आसक्ति ( प्यार) कैसे असुर हो सकती है... इसको समझना थोड़ा मुश्किल हो जाता है। शंकराचार्य जी कहते हैं आसक्ति वो दानव है जहां हम अपनी खुशी और निर्भरता की चाबी दूसरे को दे देते हैं । इस तरह हमारा जीवन मोहताज हो जाता है।
इतना ही नहीं कई लोग तो अपने ओहदे को भी को ही अपनी पहचान बना लेते हैं।
इन सब बन्धनों से छूटना नामुमकिन हो जाता है।
इस तरह आसक्ति
और रंजिश एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
शंकराचार्य जी कहते है ..कि आत्माराम वो योगी है - जो अपनी नफरत और आसक्ति से ऊपर उठ चुका है । इस तरह उसका मन असीम शांति में खो गया है। ऐसे योगी के राम अयोध्या में नहीं बल्कि आत्मा के रूप में उसमें ही बसते हैं।
इस संदर्भ में रामायण के पात्रों का रूपांतरण करते हैं:
•राम का सीता को ढूंढना= साधक ।
• सीता का खोना | = शांति का
खोना ।
• रास्ते में मदद ली= अध्यात्मिक क्रिया की।
•हनुमान = ज्ञान
• सुग्रीव = विवेक
•जामवंत= भक्ति
•समुंदर का पार करना
= अज्ञानता का भवसागर
• पुल का बनाना
= आत्मज्ञान
•लंका = अज्ञान
•रावण= अहंकार
•अयोध्या=
(वह स्तिथि जहां जंग ना हो ) विवेकशील मन
पर,यह कैसी विडंबना है कि हम वो राम है जिसे वह भी यह भी नहीं पता कि सीता गुम है। इसलिए किसी की मदद भी नहीं ले रहे। हम कलयुग के वो राम है ... जो आत्मज्ञान रूपी सेतुबंध बनाने की चेष्टा भी नहीं कर रहे।
डर, आसक्ति और नफरत जैसे असुरों को नष्ट नहीं करना चाहते।
बल्कि हम वह राम है .... जो अहंकार रूपी रावण को अधिक शक्तिशाली बना रहे हैं। इस तरह हमारा जीवन रामायण से बिल्कुल उल्ट चल रहा ।
रामायण पढ़ने से कोई लाभ नहीं होगा। निस्संदेह यह ग्रंथ अनमोल है परंतु हमको इसकी गहराई में डुबकी लगानी होगी।
अतः .....जागो राम जागो । अपनी सीता को ढूंढो । रावण को मारो। दूसरे शब्दों में ...... अज्ञानता के भवसागर को पार करो और अपने भीतर शाश्वत आनंद के दर्शन करो।
Verse 50
The demons of attachment and aversion; fear and even attachment to one’s status, resides in the mind.
Shankaracharya says that when a Yogi slays the demons of fear, attachment and aversion and crosses the ocean of ignorance, his mind brims with tranquillity and he revels in his own Self. Such a yogi is also called Atmarami - one who has realised that the Atman itself is Rama. His own atman is Raman.
In the metaphorical context, Ramayana represents:-
Sita - the peace/tranquility
Rama - the disciple/seeker , whose spiritual practices were —>
Hanuman - jnana,
Jamvant - devotion,
Sugreeva - viveka ( discriminating wisdom)
The seeker (Rama) had to cross the ocean of ignorance and use the bridge of
Brahmajnana ( knowledge of the Self) to rescue Sita( peace).
For the seeker, ignorance is Lanka and Ravana is none other than the ego. Unless the ego is killed, peace(Sita) will not be attained.
The word Ayodhya means a place where there is no room for any war nor any conflict.
His entire life in exile, Lord Rama kept on saying one demon after the other. He served so many sages and spent all his time in spiritual practises.
Individual on the spiritual path -
needs to wake up and search for Sita(peace);
be the Rama who slays Ravana(ego);
be the one who crosses the ocean of ignorance and revels in the supreme peace of his/her own Self. -
Verse 48This entire phenomenal world is indubitably, the Atman itself. ‘I’ am sentient, the world is inert; I am eternal, the world is perishable ;‘I’ am all pervading, the world is limited by time and space.Similarly,Jiva are varied but Self is one; bodies are multifarious but the Self is one.An enlightened being sees his own Self in everything and every being. Or one can say, He sees everything and every being in his own Self.If focused only on the form, the essence will be missed. Once one realises the essence of ‘I’ the real Self, automatically the essence of ‘I’ in every other being is known.This is the truth of Upanishad, “By knowing the One; you end up knowing everything.”The One is none other than ‘I’ the Atman.Verse 49Intellect abides close to the Self, followed by the mind, then the senses and the body; the outermost is the entire objective world. All these abide in Self. When shrouded by ignorance, mind-intellect’s characteristics are mistaken to be one’s traits. On gaining self knowledge, the liberated enlightened being leaves all the traits( upadhis).Being old or young, healthy or sick, are the attributes of the body mistaken to be ‘I’ the Self’s attribute.Dumb or intelligent, reflects the quality of the intellect;sinner or virtuous reflects the traits of the mind. But once the ignorance gets dispelled, it becomes clear these or not the qualities of the Self.Under the intense supervision of an enlightened master, disciple eventually comprehends and realises ‘I’ am the supreme Self. This radical metamorphosis is brought by the Master. The Master simply unveils the real identity. Endowed with the liberating knowledge, the disciple abides in eternal bliss. Only a master can liberate one from the clutches of ignorance, from the bondage of birth and death. Guru is the saviour, the redeemer who delivers one to the eternally liberating destination of enlightenment.श्लोक 47: जैसे मिट्टी के बर्तन चाहे *विभिन्न अकार के हों या*विभिन्न नाप के हो पर सब की रचना मट्टी से ही है । मिट्टी ही उनका तत्व है।इसी तरह जीव और शरीर भी अनेक हैं। पर इन सबका तत्व आत्मा ही है।अगर हम केवल घड़े को देखते हैं तब हम मिट्टी को नहीं देख पाते। परंतु अगर हम जान ले की घड़ा केवल मिट्टी है ..... तो यह साफ हो जाएगा कि सारे घड़े मात्र मिट्टी हैं। ठीक इसी तरह हम भी माया में जीव देख रहे हैं ।जबकि ज्ञानी केवल आत्मा देखता है। इस तरह ज्ञानी सब में स्वयं को देखता है .... ऐसे भी कह सकते हैं कि स्वयं में सब को देखता है। इदम का अर्थ है > यह >संसार >नश्वर > सीमित > जड़ है।जबकि अहम् का अर्थ है > आत्मा >शाश्वत >सर्वव्यापक > संवेदनशील है। जिस क्षण अपने तत्व का ज्ञान होगा -उसी पल बाकी सब के तत्व भी स्पष्ट हो जायेंगे । उपनिषदों में भी यही वर्णित है कि स्वयं को जानते ही बाकी सब भी उजागर हो जाता है। श्लोक 49 : अज्ञानता के कारण ..... हमने मन -बुद्धि की उपाधियों को अपना रखा है । परंतु जैसे ही अपने तत्व का ज्ञान होता है ... यह भ्रम टूट जाता है। शंकराचार्य जी ततैया का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि यह ऐसा कीड़ा है... जो कीड़े मकोड़े पर जीवन व्यतीत करता है। यदि कोई कीड़ा इसके घोंसले में घुसता है .. .... तो ततैया उस पर ऐसे वश से मंडराता है कि वह बेचारा हारकर अपना व्यवहार छोड़कर .... ततैया की तरह ही हो जाता है। परन्तु यह कैसे संभव है ? पर इस मुद्दे पर तर्क करना मक़सद नहीं है। यह उदाहरण केवल गुरु और शिष्य के संबंध को दर्शाता है। शिष्य गुरु के समक्ष गलत धारणाओं के बोझ तले आता है । यहां ,गुरु का लगातार ततैया की तरह उस पर वश पूर्ण मंडराना और आत्म- ज्ञान के बारे में हमेशा गुनगुनाते रहना ....... आखिरकार शिष्य को हृदय परिवर्तन पर मजबूर कर ही देता है। इस तरह वो प्रबोधन पा जाता है । यही उसकी असली अवस्था है। गुरु केवल उसकी अज्ञानता का परदा ही हटाता है। जिसके फलस्वरूप शिष्य शाश्वत प्रेम में झूम उठता है। अतः, गुरु वो मुक्तिदाता है ..... जो हमारा उद्धार करके .... हमें परम ज्ञान देता है। इसलिए कबीर ने भी कहा है.... कि गुरु और गोविंद के बीच में गुरु का स्थान ऊंचा है।
- Se mer