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  • Punya Vardhak Mantra पुण्य वर्धक मंत्र : ॐ ह्रीं श्रीं अर्हं नमः 108 times
    ◆ (ये मंत्र पहले आपके पाप कर्मों को "नष्ट" करेगा और "पुण्य" को बढ़ाएगा, फिर "समृद्धि" लाएगा। ना किसी के चक्कर काटना, ना धन का खर्च और मन की शांति खोना। जप से मन में "विश्वास तुरंत आता है और “फालतू" विचारों को "ताला" लग जाता है.

    बाधाएं आये ही नहीं, इसके लिए भक्ति और विश्वास से उपरोक्त मंत्र की १ माला तीर्थंकरों अथवा इष्टदेव की किसी भी मूर्ति/फोटो/तस्वीर के आगे रोज जाप करें। (घर पर हो तो दीपक और अगरबत्ती करें -इससे अधिष्ठायक देव प्रसन्न होते हैं).

  • Shri Padmavati Kavacham श्री पद्मावती कवचम् ★


    भगवन् ! सर्वमाख्यातं, मंत्रं यंत्रं शुभप्रदम् ।
    पदमायाः कवचं ब्रूहि, यद्यहं तव वल्लभा ।।1।।

    महागोप्यं महागुह्यं पद्मायाः सर्वकामदम् ।
    कवचं मोहनं देवि ! गुरुभक्ताय दीयते 11211

    राज्यं देयं च सर्वस्वं कवचं न प्रकाशयेत् ।
    गुरुभक्ताय दातव्यमन्यथा सिद्धिदं नहि ||3||

    ऐं बीजं, क्लीं शक्तिः हसौ कीलकम् पद्मावती - प्रीत्यर्थं जपे विनियोगः ।

    ॐ पद्माबीजं शिरः पातु, ललाट पंचमी परा ।
    नेत्रे कामप्रदा पातु मुखं भुवनसुन्दरी ।।4।।

    नाभिकां नागनाथश्च जिह्वां वागीश्वरी तथा ।
    श्रुतिरूपा जगद्धात्री, करौ हृतं हिमवासिनी 11511

    उदरं मोहदमनी, कुण्डली नाभिमण्डलम् ।
    पार्श्व पृष्टं कटि गुह्य शक्ति स्थान निवासिनी 11611

    उरुजुंघे तथा पादौ सर्वविघ्नविनाशिनी ।
    रक्ष रक्ष महामाये ! पद्म । पद्मालये ! शिवे ! 117।।

    वांच्छितं पूरयत्वाशु पद्मा सा पातुः सर्वतः ।
    इदं तु कवचं देव्या यो जानाति च मंत्रवित 11811

    राजद्वारे श्मशाने च भूतप्रेतोपचारिके ।
    बन्धने च महादुःखे भये शत्रुसमागमे ||9||

    स्मरणात्कवचस्यास्य भयं किंचिन्न जायते ।
    प्रयोगमुपचारं च पद्मायाः कर्त्तुमिच्छति ।।10।।

    कवचं प्रपठेदादौ ततः सिद्धिमवापुयात् ।
    भूर्जे पत्रे लिखित्वा तु कवचं यस्तु धारयेत् ।।11।।

    देहे च यत्रकुत्राऽपि सर्वसिद्धिर्भवेद् ध्रुवम् ।
    शस्त्राग्निजं भयं नैव, भूतादिभयनाशनम् ।।12।।

    गुरुभक्तिं समासाद्य पद्मायाः स्तवनं कुरु । सहस्रनामपठने कवचं प्रथमं कुरु 111311

    नन्दिना कथितं देवि तवाग्रे तत् प्रकाशितम्
    सांगता जायते देवि । नान्यथा गिरिनन्दिनी ।।14।। !

    इदं कवचमज्ञात्वा पद्मायाः स्तौति यो नरः ।
    कल्पकोटिशतेनाऽपि न भवेत सिद्धिदायिनी ।।15।।

    || इति श्री रुद्रयामले पद्मावतीकवचं सम्पूर्णम् ।

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  • Sri Sai Naam Smaran श्री साईं नाम स्मरण ★
    जय ॐ, जय ॐ, जय जय ॐ, ॐ, ॐ, ॐ, ॐ, जय जय ॐ |
    जय साईं, जय साईं, जय साईं ॐ, ॐ साईं, ॐ साईं, ॐसाईं ॐ ।। ★

  • Vairagya Bhavna वैराग्य भावना • (दोहा)

    बीज राख फल भोगवे, ज्यों किसान जग-माँहिं |
    त्यों चक्री-नृप सुख करे, धर्म विसारे नाहिं ||१||

    (जोगीरासा व नरेन्द्र छन्द)

    इहविधि राज करे नरनायक, भोगे पुण्य-विशालो |
    सुख-सागर में रमत निरंतर, जात न जान्यो कालो ||
    एक दिवस शुभ कर्म-संजोगे, क्षेमंकर मुनि वंदे |
    देखि श्रीगुरु के पदपंकज, लोचन-अलि आनंदे ||२||

    तीन-प्रदक्षिण दे सिर नायो, कर पूजा थुति कीनी |
    साधु-समीप विनय कर बैठ्यो, चरनन-दृष्टि दीनी ||
    गुरु उपदेश्यो धर्म-शिरोमणि, सुनि राजा वैरागे |
    राज-रमा वनितादिक जे रस, ते रस बेरस लागे ||३||

    मुनि-सूरज-कथनी-किरणावलि, लगत भरम-बुधि भागी |
    भव-तन-भोग-स्वरूप विचार्यो, परम-धरम-अनुरागी ||
    इह संसार-महावन भीतर, भरमत ओर न आवे |
    जामन-मरन-जरा दव-दाहे, जीव महादु:ख पावे ||४||

    कबहूँ जाय नरक-थिति भुंजे, छेदन-भेदन भारी |
    कबहूँ पशु-परयाय धरे तहँ, वध-बंधन भयकारी ||
    सुरगति में पर-संपति देखे, राग-उदय दु:ख होई |
    मानुष-योनि अनेक-विपतिमय, सर्वसुखी नहिं कोई ||५||

    कोई इष्ट-वियोगी विलखे, कोई अनिष्ट-संयोगी |
    कोई दीन-दरिद्री विलखे, कोई तन के रोगी ||
    किस ही घर कलिहारी नारी, कै बैरी-सम भाई |
    किस ही के दु:ख बाहर दीखें, किस ही उर दुचिताई ||६||

    कोई पुत्र बिना नित झूरे, होय मरे तब रोवे |
    खोटी-संतति सों दु:ख उपजे, क्यों प्रानी सुख सोवे ||
    पुण्य-उदय जिनके तिनके भी, नाहिं सदा सुख-साता |
    यह जगवास जथारथ देखे, सब दीखे दु:खदाता ||७||

    जो संसार-विषे सुख होता, तीर्थंकर क्यों त्यागे |
    काहे को शिवसाधन करते, संजम-सों अनुरागे ||
    देह अपावन-अथिर-घिनावन, या में सार न कोई |
    सागर के जल सों शुचि कीजे, तो भी शुद्ध न होई ||८||

    सात-कुधातु भरी मल-मूरत, चर्म लपेटी सोहे |
    अंतर देखत या-सम जग में, अवर अपावन को है ||
    नव-मलद्वार स्रवें निशि-वासर, नाम लिये घिन आवे |
    व्याधि-उपाधि अनेक जहाँ तहँ, कौन सुधी सुख पावे ||९||

    पोषत तो दु:ख दोष करे अति, सोषत सुख उपजावे |
    दुर्जन-देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढ़ावे ||
    राचन-योग्य स्वरूप न याको, विरचन-जोग सही है |
    यह तन पाय महातप कीजे, या में सार यही है ||१०||

    भोग बुरे भवरोग बढ़ावें, बैरी हैं जग-जी के |
    बेरस होंय विपाक-समय अति, सेवत लागें नीके ||
    वज्र अगिनि विष से विषधर से, ये अधिके दु:खदाई |
    धर्म-रतन के चोर चपल अति, दुर्गति-पंथ सहाई ||११||

    मोह-उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने |
    ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन माने ||
    ज्यों-ज्यों भोग-संजोग मनोहर, मन-वाँछित जन पावे |
    तृष्णा-नागिन त्यों-त्यों डंके, लहर-जहर की आवे ||१२||

    मैं चक्री-पद पाय निरंतर, भोगे भोग-घनेरे |
    तो भी तनक भये नहिं पूरन, भोग-मनोरथ मेरे ||
    राज-समाज महा-अघ-कारण, बैर-बढ़ावन-हारा |
    वेश्या-सम लछमी अतिचंचल, याका कौन पत्यारा ||१३||

    मोह-महारिपु बैरी विचारो, जग-जिय संकट डारे |
    घर-कारागृह वनिता-बेड़ी, परिजन-जन रखवारे ||
    सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चरण-तप, ये जिय के हितकारी |
    ये ही सार असार और सब, यह चक्री चितधारी ||१४||

    छोड़े चौदह-रत्न नवों निधि, अरु छोड़े संग-साथी |
    कोटि-अठारह घोड़े छोड़े, चौरासी-लख हाथी ||
    इत्यादिक संपति बहुतेरी, जीरण-तृण-सम त्यागी |
    नीति-विचार नियोगी-सुत को, राज दियो बड़भागी ||१५||

    होय नि:शल्य अनेक नृपति-संग, भूषण-वसन उतारे |
    श्रीगुरु-चरण धरी जिन-मुद्रा, पंच-महाव्रत धारे ||
    धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम, धनि यह धीरज-धारी |
    ऐसी संपति छोड़ बसे वन, तिन-पद धोक हमारी ||१६||

    (दोहा)

    परिग्रह-पोट उतार सब, लीनों चारित-पंथ |
    निज-स्वभाव में थिर भये, वज्रनाभि निरग्रंथ || •

  • Guru Praan Chetna Mantra गुरु प्राण चेतना मंत्र ★
    यह एक ऐसा मंत्र है जिसके अभ्यास मात्र से गुरु की सत्ता से साधक की चेतना जुड़ने लग जाती है और वह गुरु से उन तथ्यों और ज्ञान को प्राप्त करने लग जाता है जो किसी भी साधना से संभव है ही नहीं ।

    गुरु प्राण चेतना मंत्र
    ★ ॐ पूर्वाह सतां सः श्रियै दीर्घो येताः वदाम्यै स रुद्रः स ब्रह्मः स विष्णवै स चैतन्य आदित्याय रुद्रः वृषभो पूर्णाह समस्तेः मूलाधारे तु सहस्त्रारे, सहस्त्रारे तु मूलाधारे समस्त रोम प्रतिरोम चैतन्य जाग्रय उत्तिष्ठ प्राणतः दीर्घतः एत्तन्य दीर्घाम भूः लोक, भुवः लोक, स्वः लोक, मह लोक, जन लोक, तप लोक, सत्यम लोक, मम शरीरे सप्त लोक जाग्रय उत्तिष्ठ चैतन्य कुण्डलिनी सहस्त्रार जाग्रय ब्रह्म स्वरूप दर्शय दर्शय जाग्रय जाग्रय चैतन्य चैतन्य त्वं ज्ञान दृष्टिः दिव्य दृष्टिः चैतन्य दृष्टिः पूर्ण दृष्टिः ब्रह्मांड दृष्टिः लोक दृष्टिः अभिर्विह्रदये दृष्टिः त्वं पूर्ण ब्रह्म दृष्टिः प्राप्त्यर्थम, सर्वलोक गमनार्थे, सर्व लोक दर्शय, सर्व ज्ञान स्थापय, सर्व चैतन्य स्थापय, सर्वप्राण, अपान, उत्थान, स्वपान, देहपान, जठराग्नि, दावाग्नि, वड वाग्नि, सत्याग्नि, प्रणवाग्नि, ब्रह्माग्नि, इन्द्राग्नि, अकस्माताग्नि, समस्तअग्निः, मम शरीरे, सर्व पाप रोग दुःख दारिद्रय कष्टः पीडा नाशय – नाशय सर्व सुख सौभाग्य चैतन्य जाग्रय, ब्रह्मस्वरूपं गुरू शिष्यत्वं, स-गौरव, स-प्राण, स-चैतन्य, स-व्याघ्रतः, स-दीप्यतः, स-चंन्द्रोम, स-आदित्याय, समस्त ब्रह्मांडे विचरणे जाग्रय, समस्त ब्रह्मांडे दर्शय जाग्रय, त्वं गुरूत्वं, त्वं ब्रह्मा, त्वं विष्णु, त्वं शिवोहं, त्वं सूर्य, त्वं इन्द्र, त्वं वरुण, त्वं यक्षः, त्वं यमः, त्वं ब्रह्मांडो, ब्रह्मांडोत्वं मम शरीरे पूर्णत्व चैतन्य जाग्रय उत्तिष्ठ उत्तिष्ठ पूर्णत्व जाग्रय पूर्णत्व जाग्रय पूर्णत्व जाग्रयामि ।। ★

    चूंकि, मंत्र बड़ा है और अत्यंत ही प्रभावशाली है तो प्रतिदिन मात्र 11 या 21 बार इसका अभ्यास पर्याप्त रहता है । जो, साधक नये हैं उनको इसका 1, 3, 5 या 7 बार से प्रारंभ करना चाहिए ।

  • Shiv Ashtakam by Shankaracharya शङ्कराचार्य कृत शिव अष्टकम् ★
    तस्मै नमः परमकारणकारणाय

    दीप्तोज्ज्वलज्ज्वलितपिङ्गललोचनाय । नागेन्द्रहारकृतकुण्डलभूषणाय ब्रह्मेन्द्रविष्णुवरदाय नमः शिवाय ॥ १ ॥

    श्रीमत्प्रसन्नशशिपन्नगभूषणाय शैलेन्द्रजावदनचुम्बितलोचनाय । कैलासमन्दरमहेन्द्रनिकेतनाय लोकत्रयार्तिहरणाय नमः शिवाय ॥ २ ॥

    पद्मावदातमणिकुण्डलगोवृषाय कृष्णागरुप्रचुरचन्दनचर्चिताय ।

    भस्मानुषक्तविकचोत्पलमल्लिकाय

    नीलाब्जकण्ठसदृशाय नमः शिवाय॥ ३ ॥

    लम्बत्सपिङ्गलजटामुकुटोत्कटाय दंष्ट्राकरालविकटोत्कटभैरवाय। व्याघ्राजिनाम्बरधराय मनोहराय त्रैलोक्यनाथनमिताय नमः शिवाय ॥४॥

    दक्षप्रजापतिमहामखनाशनाय क्षिप्रं महात्रिपुरदानवघातनाय। ब्रह्मोर्जितोर्ध्वगकरोटिनिकृन्तनाय योगनमिताय नमः शिवाय ॥५॥

    संसारसृष्टिघटनापरिवर्तनाय
    रक्षः पिशाचगणसिद्धसमाकुलाय। सिद्धोरगग्रहगणेन्द्रनिषेविताय
    शार्दूलचर्मवसनाय नमः शिवाय ॥६॥

    भस्माङ्गरागकृतरूपमनोहराय सौम्यावदातवनमाश्रितमाश्रिताय । गौरीकटाक्षनयनार्धनिरीक्षणाय गोक्षीरधारधवलाय नमः शिवाय ॥७॥

    आदित्यसोमवरुणानिलसेविताय यज्ञाग्निहोत्रवरधूमनिकेतनाय। ऋक्सामवेदमुनिभिः स्तुतिसंयुताय

    गोपाय गोपनमिताय नमः शिवाय ॥ ८ ॥

    शिवाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत् शिवसन्निधौ। शिवलोकमवाप्नोति शिवेन सह मोदते ॥

    ॥ इति श्री शङ्कराचार्यकृतं शिवाष्टकं सम्पूर्णम् ॥

  • Fear Relieving Mantra भयमुक्ति मंत्र ★

    "सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥

    एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्
    पातु न: सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥

    ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
    त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥" ★
    अर्थात् :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; आपको नमस्कार है।
    हे कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित आपका सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। आपको नमस्कार है।
    हे भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला आपका त्रिशूल भय से हमें बचाये। आपको नमस्कार है।

  • Shri Aadivir Shankar Stotram श्री आदिवीर शंकर स्तोत्रम् ★

    प्रचण्ड चण्ड दण्ड पिण्ड खण्ड खण्ड खण्डनं
    न दण्डिकं सुपण्डितं च गण्ड घण्डु गुण्डकं।
    न गण्डकं न तुण्डिलं तु दण्ड गुण्डिताश्रयं
    प्रणाम मादितीर्थ मादिनाथ मादिशंकरं ।।१।।

    अजेयदेव जैन जीवभावरक्त जीवनं
    जितेन्द्रियं जिताहवं जीतात्मदेवं जोषणम।
    अनात्मभाव जित्वरं च जन्म मृत्युजित्वरं  
    अजेयकर्मभूपतिन पराजितं जयाजितं ।।२।।

    सुभावनो च भावशून्य भावविद विभावन
    भविष्यभाव भावकश्च भावरूप भावकः।
    असम्भवो न संभवो हि संभवो च संभव
    भवादृशो भवात्परो भवंहरो न सम्भवः ।।३।।

    नितान्त नन्दनं च नन्दनं च नन्दिकेश्वरं
    नरं नरेश निर्मदं नरी गिरीह नायकं।
    नरामरादि वंद्यकं निजात्मनो निबोधकं
    नमामि चाभिनन्दनं च नातिवाद नन्दथुं ।।४।।

    दरिद्र दर्प धर्ष धर्त्र धृष्ट धात्रतशच्युतं
    धुरंधरं धनिष्ठ धृत्व धृष्णु धुर्म संयुतं।
    प्रशांत शुद्ध देह वाक्य चित्त चेतना युतं
    सुबद्धिदं च तं च तं च पं च कं च पंचमं ।।५।।

    सुपद्मनाथ पद्मनाथ पद्मदेव देवतं
    सुपद्मबन्धु पद्मगन्ध पद्मपाणि पद्मदम।  
    सुपद्मवर्ण पादपद्म पद्म पद्मलान्छन
    परात्म पद्मतीर्थकं च पद्मवारवन्दनं ।।६।।

    सुपार्श्व भाग युक्त तीर्थकारकं सुवर्णकं
    सुपार्श्ववर्ति भव्यसर्व पापपंक भंजकं।
    सुपारिपार्श्व पारिपार्श्विका परिस्थितं शलं
    सुपार्श्विकं नमाम्यपार्श्वकं सुपार्श्वतीर्थकं ।।७।।

    अमूर्तजीवचंद्र चंद्रतुंड चंद्रलांछनं
    सुचंद्र! चंद्र चंदिरम च चन्द्रमाश्च चंद्र्कः।
    सुचारु चन्द्रचर्य चर्चितारचितं च चंद्रिलं
    जिनेन्द्र चंद्र चन्द्रनाथ तीर्थकारमीश्वरं ।।८।।

    पुनीत पुष्कलं च शुभ्ररश्मिपुष्प वर्णकं
    सुपुण्यबोध पुष्पितं च पुष्प केतु मर्दनं।
    सुपुष्पपुष्पसंयुतं च पुष्प रेणु गंधकं
    सुपुष्पदन्त पुष्पदंत पुष्पपुज्य वन्दनं ।।९।।

    विशाल शील शीलशालिनं च शीतलप्रदं
    श्याच्च शायकाद शालिनं शिवं च शिल्पिनं।
    अशीतशीतयोग शालिनं च शीत शीतलं
    नमामि शीतलाच्च शीतलं च शील शीलितं ।।१०।।

    अढाटडं त्रिलोक तारकोडुपापटं पटुं
    त्रिपिष्ठ तीर्थ तैर्थिकं त्रिचक्षुसं सुतैतिलं।
    तरस्वतं तु तर्ककं तितिक्षु तीक्ष्ण तार्किकं
    त्रियोगतो हि नोमि श्रेयसं जिनं जिनेश्वरं ।।११।।

    वसुंधरावसुं वसुंधरावरं सु सुन्दरं
    वयोवरं वरं वचं वशंवदं वनेवसं।
    वरप्रदं पदप्रदं सुवातवस्तुदं वदं
    सदा हि पूज्यामि वासुपूज्य पूज्य पूज्यकं ।।१२।।

    विकारितच्युतं विचेष्टीतच्युतं विटच्युतं
    विमोक्षदं निजात्मदेवकेवलाद्धी कासकं।
    विहिनवासनं विदं विकर्षणं विमर्दकं
    त्रयोदशं दिवाकरं जिनेन्द्रदेव निर्मलं ।।१३।।

    अचिन्त्य सौख्यदं विभुं विचिन्त्य तत्व शोधकं
    विचेतनं सचेतनं विचक्षणं विचारकं।
    विभाव भाव नाशकं स्वभाव भाव दायकं
    अनंतबोध वीर्यदं नमाम्यनतं चेतनं ।।१४।।

    सुधर्मयुक्तसद्धनेस्त मिस्रनाशकं धवं
    धनस्य लोभवर्जितं च धेय धारणं ध्रुवं।
    विधर्मभाव धर्ष धाषट्र्य धोतकं सुधार्मिंणं
    नमामि धर्मदेव धर्मनाथ धार्म धार्मिकं ।।१५।।

    प्रशांतकाम शांत शान्तिदं प्रशान्तिदं शमं
    प्रशांतबाध शासनं प्रशंसितं प्रशामदं।
    निजात्मशान्ति शापितं च शांतिदूत शान्तिकं
    ददातु शान्तिमीशमाशु शांतिनाथ! शंतनो!।।१६।।

    पदत्रयस्य शालिनं नरामरारिसेवितं
    कुंलीन कुंडीरं कुतूहलं च साधुकुंजरं।
    कृतार्थशासनस्य संकुमार यूँ च कुथकं
    मुनीन्द्र कुंथुनाथ सर्वजीवनाथ तीर्थकं ।।१७।।

    परारि रागरज्जुसंपदस्थ चक्रधारकः
    पुनश्च धर्म चक्रधारको नरेशसेवितः।
    परस्य संपराभवः परंतपं परातपरं
    नमामि नारसारजोऽरनाथतीर्थ चक्रकं ।।१८।।

    अबाल्य बल्य बल्य मोहमल्लमान भंजनं
    सजल्लमल्ल मुलिकं ललाम जल्प चातुरं।
    विशल्य मल्ल कल्प कल्य कल्य काल्य मेलनं
    सुमल्लिगंध मल्लिनाथ मल्लसाधु वन्दनं ।।१९।।

    सुदीर्घ कीर्ति तीर्थकार पंचगुप्तलांछनं
    निजात्म तीर्थ लब्ध्नार्थ सुव्रतानि धारकं।
    विचित्र वर्तमान काल वंदितं सुतीर्थकं
    महाव्रतं च सुव्रतं ददं सुसाधुसुव्रतं ।।२०।।

    नमो नमो नमो नमो नमस्यनाय नायकं
    नियाम नैमयं नु निर्निमित्तमित्र नर्मदं।
    निदर्शनं नहुष्क नाग नारदैर्नमस्कृतं
    नमोगुरुं नमस्कृतिं नमोस्तु तं च मि नमिम ।।२१।।

    अरिष्टनेमिनाथ! नेमिने! निमे! नुते! मुने!
    गरिष्ठ-पुष्ट-पुष्टिदं बलिष्ठ पौष्टिक प्रदः।
    समस्त विष्टपे निकृष्टवसनाग वर्जितो
    विशिष्ट शिष्ट शिष्टहार रिष्टको विशिष्टकः ।।२२।।

    विरोधतश्च यो नभस्वरैः स्थिरश्च संकटे
    तड्ट तड्ट तड्टतड़न्निनादकैरभयंकरे।
    निजात्मशुद्धमंदिरे ध्रुवे वसेच्च पार्श्व! मे
    समत्वमूर्ति पार्श्वनाथ! काशिपार्थ नन्दनं ।।२३।।

    महत्तरं महानुभाव मोक्षमार्ग मार्गिकं
    महार्णवं महन्त मंगलं महार्ह माठरं।
    ममात्म मार्जनं महालयं मराल मार्मिकं
    नमोस्तु मन्त्रतो महा महात्मवीर शंकरं ।।२४।।

    पठेत्कृतं विशुद्ध नंदनेन शासकस्तुतिं
    भवेत् रमरन्ब्रुवज्जनः सुकीर्ति बुद्धि शालिनः।
    पुनश्च सो निजात्म भक्तिरंजितश्च नित्यशः
    समस्त कर्मणां विनश्य चादिवीरवद भवेद ।।२५।।

  • Mrit Sanjeevani Maha Mrityunjay Mantra मृत संजीवनी महामृत्युंजय मन्त्र ★

    ‘ॐ हौं जूं स:। ॐ भूर्भव: स्व:। ॐ त्र्यंबकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
    उर्वारुकमिव बंधनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात। स्व: भुव: भू: ॐ। स: जूं हौं ॐ। ★

    शास्त्रों के अनुसार ये मंत्र मरते हुए आदमी को भी जीवन दे सकता है इसलिए इस मंत्र को मृत्यु संजीवनी कहा जाता है। जब रोग असाध्य हो जाए, कोई आशा ना बचे तब इस मंत्र का घर में कम से कम सवा लाख बार जाप करवाना चाहिए। 

  • Before Meals Mantra भोजन पूर्व मंत्र ★
    Before Meals Mantra भोजन पूर्व मन्त्र

    ॐ सह नाववतु, सह नौ भुनक्तु, सह वीर्यं करवावहै
    तेजस्वि नावधीतमस्तु मा विद्विषावहै ॥
    ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
    अन्नपूर्णे सदापूर्णे शंकर प्राण वल्लभे ।
    ज्ञान वैराग्य सिद्धयर्थम् भिक्षाम् देहि च पार्वति।।
    ब्रह्मार्पणं ब्रह्महविर्ब्रह्माग्नौ ब्रह्मणा हुतम् |
    ब्रह्मैव तेन गन्तव्यं ब्रह्मकर्म समाधिना ।। ★
    अर्थात्
    परमेश्वर हम शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें, हम दोनों को साथ-साथ विद्या के फल का भोग कराए, हम दोनों एकसाथ मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें, हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो, हम दोनों परस्पर द्वेष न करें।
    माँ अन्नपूर्णा शिव की शक्ति हैं, शिव जी का जीवन संगिनी है, वे संपूर्ण है। अनादिकाल से अन्नपूर्णा जुड़ाव को अन्न का वरदान दे रहा है और अनंत तक वे अन्न का प्रसाद प्रदान करते रहेंगे। हम भी माँ अन्नपूर्णा से हमारे ज्ञान और वैराग्य के इस मार्ग में सिद्धि प्राप्त करने हेतु आवश्यक अन्न रूपी प्रसाद के भिक्षा की याचना करते हैं व माँ हमें अन्न की भिक्षा प्रदान करें।
    (जिस यज्ञ में) अर्पण ब्रह्म है, हवन-द्रव्य भी ब्रह्म है, तथा ब्रह्मरूप कर्ता के द्वारा ब्रह्मरूप अग्नि में आहुति देने की क्रिया भी ब्रह्मरुप है- उस ब्रह्मकर्मरुप समाधि द्वारा प्राप्त किये जाने योग्य फल भी ब्रह्म ही है ।